Book Title: Mudra Vignan
Author(s): Nilam P Sanghvi
Publisher: Pradip Sanghvi

View full book text
Previous | Next

Page 41
________________ २२ मृगी मुद्रा : मध्यमा और अनामिका को एक दूसरे के पास रखते हुए, अंगूठे के अग्रभाग को वह दोनो अंगुलियों के मध्यभाग पर इस तरह रखें कि हल्का सा दबाव का अनुभव होते हुए तीनों अंगुलियों का स्पर्श बना रहे और तर्जनी और कनिष्ठिका सीधी रखते हुए मृगी मुद्रा बनती है। इस मुद्रा का आकार मृग जैसा बनता है । इसलिए इसे मृगी मुद्रा कहते है । लाभ : • मृग जैसी सहजता और सरलता आती है । अहंकार के भाव नष्ट होकर ऋजुता के भाव आते है जिस से व्यक्ति नम्र बनकर ईश्वराधीन रहता है। भावधारा सात्त्विक बनती है और चित्त की स्थिरता आती है जिस से आध्यात्मिक दिशा में आगे बढ़ सकते है। इस मुद्रा से दांत और सायनस के रोग में राहत मिलती है । सरदी के सिरदर्द में राहत मिलती है और मानसिक शांति मिलती है । यज्ञमे आहुति देने के वक्त यह मुद्रा करके आहुति मध्यमा और अनामिका के अग्रभाग पर रखकर दी जाती है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66