Book Title: Mudra Vignan
Author(s): Nilam P Sanghvi
Publisher: Pradip Sanghvi

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Page 25
________________ १०.२ अपानमुद्रा : मध्यमा और अनामिका के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से लगा के अंगूठे से हल्का दबाव देते हुए, तर्जनी और कनिष्ठिका सीधी रखते हुए अपानमुद्रा बनती है। अपानवायु का स्थान स्वास्थ्य केन्द्र (स्वाधिष्ठान चक्र), शक्तिकेन्द्र (मूलाधर चक्र), पेट, नाभि, गुदा, लिंग, घुटना, पिंडी और जांघ मे हैं । लाभ: • अपानवायु का काम शरीर की शुद्धि करना है । इससे शरीर के विष दूर होते हैं और विजातीय तत्त्व दूर होने से सात्त्विकता आती है । इस मुद्रा से मल, मूत्र और पसीना ठीक से होता है । जिसे कभी मूत्र बंद हो जाने से तकलीफ होती है तब यह मुद्रा ४५ मिनट करने से पिशाब होता है। पसीना बहुत कम होता हो या बहुत ज्यादा होता हो तब इस मुद्रा से उसका संतुलन होता है। पेट के विकार दूर होते हैं । उल्टी, हिचकी और जी मचलने की तकलीफ में राहत मिलती हैं। दांत के स्वास्थ्य में अपानमुद्रा और प्राणमुद्रा साथ करनी चाहिए । डायबिटीस में अपानमुद्रा और प्राणमुद्रा साथ में करनी चाहिए । • सिरदर्द में ज्ञानमुद्रा और अपानमुद्रा साथ करनी चाहिए । आँख, कान, नाक या मुँह के कोई भी विकार में अपानमुद्रा और प्राणमुद्रा साथ करनी चाहिए। मासिक धर्म की तकलीफ में राहत मिलती है । मासिक स्त्राव का नियंत्रण होकर उसके होनेवाले दर्द में लाभदायक है । १८

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