Book Title: Mokshmarg ke Sandarbh me Nimitta ka Swarup
Author(s): Babulal
Publisher: Babulal

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Page 3
________________ परिणमन करे और जितना परिणमन करे, उतना ही मोहनीय कर्म का उदय माना जाता है । फलप्राप्तिरुदयः’ सर्वार्थसिद्धि में श्री पूज्यपाद आचार्य ने 'उदय' की परिभाषा प्रकार की है 'द्रव्यादिनिमित्तवशात्कर्मणां अर्थात् जीव के द्वारा द्रव्यादि निमित्त के अनुसार कर्मफल की प्राप्ति उदय है (अ० २, सू० १)। 'द्रव्यादि निमित्त' का अभिप्राय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव से है (स० सि० अ० ६, सू० ३६ ) । इनमें से पहले चार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव की प्रासंगिकता तो मुख्यतः अघातिकर्मों के सन्दर्भ में हैं। मोहनीय कर्म के सन्दर्भ मे तो जीव के 'भाव' या परिणाम ही प्रासंगिक हैं, अतः उक्त परिभाषा का आाय है कि जीव के परिणामों के अनुसार जो फलप्राप्ति हो, वह उदय है। ध्यान देने योग्य है कि आचार्य का आशय 'जो उदय हो, वह फलप्राप्ति है' ऐसा नहीं है । आचार्य पूज्यपाद के उक्त कथन में करणानुयोग का यह नियम अन्तर्निहित है कि कर्म के उदय, उदीरणा, संक्रमण, उपशम, क्षयोपशम आदि अवस्थाएं जीवपरिणामरूपी हेतु के अनुसार ही होते हैं। अतएव 'शेष द्रव्यकर्म का क्या हुआ, जिसका फल जीव ने नहीं लिया?' इस प्रश्न का उत्तर यही बनता है कि जीव के परिणामरूपी पुरुषार्थ के अनुरूप उसका उदयाभावी क्षय हो गया, अर्थात् वह देशघाति आदि रूप से संक्रमित हो गया। करणानुयोग के अनुसार, मात्र उदयावलिकाल को छोड़कर, उदीयमान कर्मों के स्थिति - अनुभाग में अपकर्षण, उत्कर्षण आदि परिवर्तन जीव के वर्तमान पुरुषार्थ के अनुसार सदाकाल चलते रहते हैं। अतः उदीयमान कर्म का, हम अपने विशुद्धि की ओर बढ़ते परिणामों इस ― ―

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