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हुए, इनके अवलम्बनपूर्वक आत्म-सम्मुख होने का उपदेश दिया।
इस विषय पर पण्डित टोडरमल जी के विचार मोक्षमार्गप्रकाशक के नौवें अधिकार में इस प्रकार मिलते हैं "कारण अनेक प्रकार के होते हैं। ... कितने ही कारण ऐसे हैं जिनके होने पर कार्य सिद्ध अवश्य ही होता है, और जिनके न होने पर कार्य सिद्ध सर्वथा नहीं होता । जैसे सम्यग्दर्शन–ज्ञान—चारित्र की एकता होने पर तो मोक्ष अवश्य ही होता है, और उनके न होने पर सर्वथा मोक्ष नहीं होता। . • कोई कारण ऐसे होते हैं, जिनके हुए बिना तो कार्य नहीं होता, और जिनके होने पर कार्य हो, अथवा न भी हो। जैसे
मुनिलिंग धारण किये बिना तो मोक्ष नहीं होता, परन्तु मुनिलिंग धारण करने पर मोक्ष होता भी है और नहीं भी होता । तथा कितने ही कारण ऐसे हैं कि मुख्यतः तो जिनके होने पर कार्य होता है, परन्तु किसी-किसी के बिना हुए भी कार्य सिद्ध हो जाता है। जैसे- अनशनादि बाह्य तप । इस प्रकार ये कारण कहे, उनमें अतिशयपूर्वक नियम से मोक्ष का साधक जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान - चारित्र का एकीभाव है, उसे मोक्षमार्ग जानना चाहिये।"
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यहाँ पर भी मुनिलिंग और बाह्यतपादिक साधनों के लिये पण्डित जी ने जो कारण शब्द का प्रयोग किया है, वह साधन में कारण का उपचार करते हुए ही ऐसा कहा है। अतः उनको साधन ही मानना चाहिये, कारण नहीं । इसीलिये पण्डित जी ने सातवें अधिकार में, 'निश्चय- व्यवहारालम्बी' प्रकरण के अन्तर्गत, बाह्य अवलम्बनों के कारणपने का निषेध करके साधनपने की स्थापना की है ।