Book Title: Mokshmarg ke Sandarbh me Nimitta ka Swarup
Author(s): Babulal
Publisher: Babulal

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Page 15
________________ न नौवें अधिकार में ही आगे जाकर पण्डित जी लिखते हैं "अणुव्रत / महाव्रत होने पर देशचारित्र / सकलचारित्र हो अथवा हो, परन्तु अणुव्रत / महाव्रत हुए बिना देशचारित्र / सकलचारित्र कभी नहीं होता।" इसका अर्थ हुआ कि चरणानुयोग के विषयभूत जो अणुव्रत / महाव्रतरूपी साधन हैं, वे देशचारित्र / सकलचारित्ररूपी विशिष्ट आत्मपरिणामों को (जिनकी उत्पत्ति दो अथवा तीन कषाय - चौकड़ियों के उदय के अभाव की अपेक्षा रखती है) यद्यपि उत्पन्न नहीं कर सकते; तथापि अणुव्रत / महाव्रत के सद्भाव के बिना भी देशचारित्र/सकलचारित्र का होना असम्भव है। अतएव जिनके अणुव्रत/महाव्रत नहीं हैं, उनके अप्रत्याख्यानावरण / प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय का अभाव भी नहीं है ऐसा सुनिश्चित है। यह इसी सन्दर्भ में एक और प्रश्न उत्पन्न होता है 'प्रवृत्तिरूप आचरण के सहचारी जो परिणाम रागात्मक हैं, अतएव बन्ध के कारण हैं; वे वीतरागता का साधन कैसे हो सकते हैं?' उत्तर है कि सुदेव- शास्त्र - गुरु के आश्रित जो शुभोपयोगरूप आत्मपरिणाम हैं, वे बन्ध का कारण हैं बात सत्य है; तथापि वे वीतरागता का साधन अवश्य हो सकते हैं। उदाहरण के लिये, जैसे व्यापारिक संस्थानों द्वारा विज्ञापनों पर किया जाने वाला व्यय यद्यपि आय का कारण नहीं है, तथापि आय का साधन अवश्य है क्योंकि विज्ञापनों के माध्यम से बिक्री बढ़ा कर अधिक लाभ कमाया जा सकता है। ऐसे ही, उपयुक्त शुभोपयोग यद्यपि बन्ध का कारण है, तथापि शुद्धोपयोग के लक्ष्य से प्रेरित होकर यदि किया जाता है तो वीतरागता का साधन भी है इसीलिये इसे 'परम्परया ― ― —

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