Book Title: Mokshmarg ke Sandarbh me Nimitta ka Swarup
Author(s): Babulal
Publisher: Babulal

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Page 19
________________ आचरण का विषय नहीं मानेंगे, तब हमारे जीवन में उसकी कोई उपयोगिता स्थापित नहीं हो सकेगी, और न ही हममें आचरण को ग्रहण करने का कोई उत्साह जाग्रत हो सकेगा। (च) यह सुस्पष्ट है कि प्रमाण का विषय समग्रता को लिये हुए होता है, जबकि नयों का विषय सापेक्षता को लिये हुए। तत्त्व-विवेचना के दौरान हमें यह सिद्धान्त सर्वत्र प्रयुक्त करना चाहिये, तभी जिज्ञासुओं के प्रश्नों का, शंकाओं का सही समाधान हो सकेगा। विषय चाहे निमित्त-उपादान का हो या निश्चय–व्यवहार का, सामान्य-विशेष का हो द्रव्यदृष्टि-पर्यायदृष्टि का, द्रव्यसंयम- भावसंयम का हो या द्रव्यकर्म-पुरुषार्थ का - सापेक्ष कथन को सम्पूर्ण वस्तुस्वरूप का कथन मानते ही मिथ्या-एकान्त हो जाएगा। (छ) निमित्ताधीनदृष्टि का अर्थ है 'मिथ्या' दृष्टि। जो जीव निमित्त को कर्ता मानता है, उसकी दृष्टि, उसका दर्शन 'निमित्ताधीन' है। जीव की ऐसी दृष्टि ही अनन्तानुबन्धी कषाय को जन्म देती है। आगम में – विशेषतः करणानुयोग और चरणानुयोग में – निमित्त को उपचार से कर्ता कहकर वर्णन किया गया है। जहाँ भी हमें ऐसा वर्णन दश्टिगोचर हो, वहाँ हमें विवेकपूर्वक उस परवस्त के निमित्तपने को तो यथार्थ समझना चाहिये, जबकि कर्तापने को उपचार समझना चाहिये – क्योंकि निमित्त परद्रव्य की पर्याय है, अतः वह अन्यद्रव्य का कर्ता नहीं हो सकती।

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