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प्रकार स्वभाव को प्रतिपादित करने वाली द्रव्यार्थिक दृश्टि की प्रधानतापूर्वक कथन करके)। । दूसरी ओर 'यः परिणमति . . . ' वाली परिभाशा पर्यायदृश्टि से की गई है। वहाँ, द्रव्य और उसकी वर्तमान पर्याय में भेददृश्टि की मुख्यता से द्रव्य को स्वयं की पर्याय
का कर्ता बतलाया है। प्र न १८ : जब निमित्त कर्ता नहीं होता, तब 'उसकी उपस्थिति
मात्र है - ऐसा कहने से क्या निमित्तपने की ठीक परिभाशा हो
जाएगी? उत्तर : नहीं, 'केवल उपस्थिति' निमित्तपने की सही/सम्यक
व्याख्या नहीं करती। केवल भौतिकरूप से उपस्थिति (mere physical presence) होने से कोई परपदार्थ 'निमित्त' नहीं हो जाता, किन्तु उपादान को उसका अवलम्बन लेना होता है। अब दो सम्भावनाएँ बनती हैं - (1) कार्यानुकूल परपदार्थ वर्तमान में उपस्थित हो और उपादान उसका अवलम्ब लेकर परिणमे; अथवा (2) परपदार्थ वर्तमान में साक्षात् रूप से उपस्थित न भी हो, किन्तु उपादान अपनी स्मृति के द्वारा उसे अपने उपयोग में उपस्थित करके, उसके अवलम्बपूर्वक परिणमे। जैसे कि पूर्व में भोगे गए भोगों के स्मरणपूर्वक यह जीव पुनः राग-द्वेशरूप परिणाम कर लिया करता है। इसी प्रकार, पूर्व में पढ़े हुए जिनागम के स्मरण-मननपूर्वक यह जीव अपने परिणामों की वर्तमान में सँभाल भी कर सकता है।
हमारे चारों ओर सदाकाल असंख्य पदार्थ उपस्थित रहते हैं, किन्त 'निमित्त' हम उसी को कह सकते हैं जिसका कि हम अपने वांछित कार्य के लिये अवलम्बन