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(झ) ऊपर की विस्तृत विचारणा के दौरान हमने देखा कि कार्य
के होने में निमित्त और उपादान, दोनों का अपना-अपना स्थान है। जब वस्तुस्वरूप इस प्रकार है तो विवक्षित कार्य को सम्पन्न करने के लिये, दोनों प्रकार के हेतओं में से जिस ओर कमी हो उसकी पूर्ति हमें अपने जीवन में करनी चाहिये। यदि निजकार्यानुकूल निमित्त उपलब्ध नहीं है तो चेष्टापूर्वक उसे ढूँढकर – उसका संयोग प्राप्त करके – उसका अवलम्ब लेना चाहिये; इसी प्रकार, जो निमित्त निज कार्य के प्रतिकूल पड़ते हों, उनसे हटना चाहिये। तथा, दूसरी ओर, अपने साध्य का निर्णय बुद्धि के स्तर पर कर लेने के बाद भी यदि हम पाते हैं कि हमारा उपादान तदनुरूप नहीं है तो अपने में उस अनुरूपता को विकसित करने का सम्यक् प्रयत्न हमें करना चाहिये। निज साध्य/कार्य को सम्पन्न करने का यही समीचीन पुरुषार्थ
अन्ततः, अतिसंक्षेप में कहें तो, निष्कर्ष यह है कि मोक्षमार्ग के सन्दर्भ में हमें अपने साध्य/कार्य में उपयुक्त/अनुकूल पड़ने वाली परवस्तु/निमित्त का अवलम्ब लेकर – किन्तु उसे कर्ता समझने की अपनी भूल का भली-भाँति सुधार करते हुए
- अपने आत्मबल को बढ़ाने का सम्यक् पुरुषार्थ करना चाहिये, ताकि फिर किसी भी परद्रव्य के अवलम्बन की आवश्यकता हमें न रहे और हम पूर्ण स्वाधीन हो जाएँ।