Book Title: Mokshmarg ke Sandarbh me Nimitta ka Swarup
Author(s): Babulal
Publisher: Babulal

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Page 25
________________ रागी-द्वेषीपना आदि अवगुण हैं, उनका उस जिनमुद्रा में नितान्त अभाव है; उन्हें तो वह व्यक्ति अपनी स्वयं की ही - गृहीत अथवा अगृहीत मिथ्या मान्यताओं/कल्पनाओं से वहाँ आरोपित करता है, जिनबिम्ब की उसमें कोई भूमिका नहीं है। प्र न ६: निमित्त जुटाने के उपदे । से क्या दृश्टि बहिर्मुख नहीं हो जाती? और, चेश्टापूर्वक निमित्त जुटाना क्या 'पर-कर्तृत्व' का सूचक नहीं है? उत्तर : ऐसा नहीं है – निमित्त जुटाने का उपदे । उन्हीं जीवों को दिया गया है जो निरंतर संसार- रीर भोगों में लगकर कशायों की पुश्टि कर रहे हैं। ऐसे जीवों को 'अ शुभ निमित्तों' से हटाने के हेतु उन्हें ऐसे पदार्थों का अवलम्ब छोड़ने का और ' शुभ निमित्तों' का अवलम्ब ग्रहण करने का उपदे । दिया है, जिससे कि उनके अन्तरंग में भाद्धोपयोग की महिमा और उसके प्रति रुचि जाग्रत होने की सम्भावना बने। निमित्तों को जुटाना अर्थात् प्रयत्नपूर्वक उनका संयोग प्राप्त करना 'पर-कर्तृत्व' का सूचक नहीं, अपितु कार्यसिद्धि का एक बहिरंग उपाय है। प्र न १० : क्या निमित्त भी इश्ट अथवा अनिश्ट होते हैं? उत्तर : नहीं, पर-पदार्थ कभी भी किसी को इश्ट अथवा अनिश्ट नहीं होता। जीव का वीतरागतारूप परिणमन ही वस्तुतः इश्ट है, जबकि राग-द्वेशरूप परिणमन अनिश्ट है। कशायों की वृद्धि में जो पदार्थ निमित्त पड़ता है, उसे उपचार से 'अनिश्ट' कह दिया जाता है; और कशायों की मन्दता में जो निमित्त होता है, उसे उपचार से 'इश्ट' कह दिया जाता है। अथवा जिसका अवलम्ब लेकर हम अपना इश्ट कार्य कर लेते हैं, उसे 'इश्ट निमित्त' कहते हैं, और

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