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साधन' कहा जाता है। सम्यग्दृश्टि व्यक्ति सुदेव-शास्त्र-गुरु को पूजते हैं, उनकी विनय करते हैं - वे इन्हें रत्नत्रय का साधन मानकर पूजते हैं, पुण्यबन्ध का कारण मानकर नहीं।
जैसा कि अनुच्छेद २.१५ में समयसार गाथा २६५ के विशय में विचार कर आए हैं, श्री अमृतचन्द्राचार्य ने शंकाकार द्वारा प्रश्न उठवाया है कि 'यदि बन्ध ही अध्यवसान का कारण है, तो फिर परवस्तु का त्याग क्यों कराया गया है?' वहाँ उत्तर दिया है कि 'अध्यवसान का आश्रय अथवा आधार परवस्तु होती है, अतः आधार के त्यागपूर्वक आधेयरूपी अध्यवसान का त्याग कराया है। इससे भी स्पष्टतः ध्वनित होता है कि यद्यपि मात्र बाह्यवस्तु के त्याग से अध्यवसान का त्याग नहीं होता, अर्थात बाह्यत्याग अध्यवसान के त्याग का कारण नहीं है, तथापि अध्यवसान का त्याग करने के लिये बाह्यत्याग आवश्यक है; बाह्यत्याग के बिना अध्यवसान का त्याग नहीं होता - बाह्यत्याग को अध्यवसान के त्याग के लिये साधन अवश्य बनाया जा सकता है।
१ २.२४ उपसंहार
ऊपर की गई विस्तृत विचारणा/वि लेशण के परिणामस्वरूप कुछ मुख्य निश्कर्श-बिन्दु नीचे प्रस्तुत किये जाते हैं -
(क) इस जीव की कर्मबद्ध अवस्था अनादिकाल से है; आत्मा के
साथ द्रव्यकर्म का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी निरंतर बना हुआ है। मिथ्यादृश्टि जीव के यह बन्ध-पद्धति अनादि से लेकर अटूट चली आ रही है; जैसे कि किसी व्यक्ति