Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 6
________________ Po मोक्षमार्गप्रकाशक का सार नाम पंचाध्यायी रखा। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि वे पाँच अध्याय लिखना चाहते थे; पर दूसरा अध्याय भी पूरा न हो सका और वे चल दिये। इसप्रकार हम देखते हैं कि ग्रंथराज पंचाध्यायी और महाग्रंथ मोक्षमार्गप्रकाशक ह्र दोनों ही अधूरे रह गये हैं । लगता है कि पण्डित टोडरमलजी के चित्त में पहले से ही आशंका हो गई थी कि शायद यह ग्रंथ पूरा न हो पाये। मंगलाचरण करने के कारणों की मीमांसा करते हुये उन्होंने ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति की मीमांसा पर बहुत जोर दिया है, प्रश्नोत्तरों के माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं ह्र आयु का भरोसा नहीं है । ४०-४५ वर्ष के महापुरुषों के ऐसे कथन कुछ विशिष्ट सूचना देते हैं। ऐसी बातें साठ-सत्तर वर्ष के लोग करते हैं; पर उस समय के वातावरण को देखकर मानों उन्हें अकाल मृत्यु का आभास हो गया था। जिसप्रकार उन्होंने जैन - जैनेतर मतों की समीक्षा की है, शिथिलाचार का विरोध किया है, धर्म के नाम पर चलने वाले पाखण्डों की पोल खोली है; उससे वे शिथिलाचारियों के लिये एक बहुत बड़ा खतरा बन गये थे। चारों ओर के वातावरण को देखकर उन्हें कुछ-कुछ आभास हो गया होगा कि किसी भी दिन कुछ भी अघटित घटित हो सकता है । आखिर, उनकी यह आशंका सत्य साबित हुई और वे ४७ वर्ष की अल्पायु में विरोधियों के षड्यंत्र के शिकार हो गये । जरा, गंभीरता से विचार करो कि उन्होंने यह अनुपम कृति हमें किस कीमत पर दी है, उन्होंने इसे जान की बाजी लगाकर लिखा है। जैनदर्शन में सर्वश्रेष्ठ मंत्र णमोकार महामंत्र माना जाता है। इस णमोकार महामंत्र में सभी अरहंतों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं को नमस्कार किया गया है। अतः उन्होंने ग्रंथ के आरंभ में ही उक्त मंत्र का स्मरण करते हुये पंचपरमेष्ठियों के स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला है। पहला प्रवचन १९ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि उन्होंने णमोकार महामंत्र के माध्यम से पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करने के पहिले वीतराग-विज्ञान को नमस्कार करना उचित समझा; क्योंकि वीतराग-विज्ञान के आश्रय से ही हम-तुम जैसे साधारण जीव भी पंचपरमेष्ठी पद प्राप्त कर लेते हैं। यह बात मैं नहीं कह रहा हूँ, अपितु उन्होंने स्वयं ही लिखा है कि ह्र नमीं ताहि जातैं भये अरहंतादि महान । पंचपरमेष्ठियों का स्वरूप स्पष्ट करते हुये उन्होंने परम्परागत पद्धति को नहीं अपनाया; अपितु जहाँ हम सब खड़े हैं, वहाँ से आरंभ कर अरहंत दशा तक ले गये हैं। अरहंत का स्वरूप समझाते हुये वे लिखते हैं ह्र “जो गृहस्थपना त्याग कर, मुनिधर्म अंगीकार कर, निजस्वभावसाधन द्वारा, चार घातिकर्मों का क्षय करके अनंतचतुष्टयरूप विराजमान हुए; वे अरहंत देव हैं।” उक्त विवेचन में गृहस्थपना और मुनिपना शब्दों को भाववाची बनाया गया है। तात्पर्य यह है कि मात्र घर छोड़कर नग्न दिगम्बरदशा धारण करने से कुछ होनेवाला नहीं है; गृहस्थपना त्यागना होगा और मुनिपना धारण करना होगा । बाह्य क्रियाकाण्ड से काम नहीं चलेगा, अंतरंग भावों की पहिचान आवश्यक है। साधन की चर्चा करते हुये भी निजस्वभाव साधन द्वारा लिखकर यह स्पष्ट किया गया है कि बाह्य शारीरिक क्रियाकाण्ड एवं शुभभावों से घातियाकर्मों का अभाव और अनन्तचतुष्टय की प्राप्ति नहीं होती, अपितु निजस्वभावसाधन द्वारा अर्थात् शुद्धोपयोग से होती हैं। यद्यपि अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य न अनन्तचतुष्टयों की प्राप्ति के लिये नग्नदिगम्बर दशा अनिवार्य है; तथापि मात्र नग्नदिगम्बर हो जाने से कुछ नहीं होगा; साथ ही शुद्धोपयोग की साधना अनिवार्य है। जिस विधि से उन्होंने अरहन्त भगवान के स्वरूप पर प्रकाश डाला है; उसी विधि से सिद्धों के स्वरूप पर भी प्रकाश डाला है।

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