Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 77
________________ 152 153 मोक्षमार्गप्रकाशक का सार मानें ? वहाँ कोई टोपी लगाते हैं, कोई गुदड़ी रखते हैं, कोई चोला पहिनते हैं, कोई चादर ओढ़ते हैं, कोई लाल वस्त्र रखते हैं, कोई श्वेत वस्त्र रखते हैं, कोई भगवा रखते हैं, कोई टाट पहिनते हैं, कोई मृगछाला रखते हैं, कोई राख लगाते हैं ह्न इत्यादि अनेक स्वांग बनाते हैं। परन्तु यदि शीत-उष्णादिक नहीं सहे जाते थे, लज्जा नहीं छटी थी, तो पगड़ी जामा इत्यादि प्रवृत्तिरूप वस्त्रादि का त्याग किसलिए किया ? उनको छोड़कर ऐसे स्वांग बनाने में धर्म का कौनसा अंग हुआ ? गृहस्थों को ठगने के अर्थ ऐसे वेष जानना / यदि गृहस्थ जैसा अपना स्वांग रखे तो गृहस्थ ठगे कैसे जायेंगे? और इन्हें उनके द्वारा आजीविका व धनादिक व मानादि का प्रयोजन साधना है; इसलिए ऐसा स्वांग बनाते हैं। भोला जगत उस स्वांग को देखकर ठगाता है और धर्म हुआ मानता है; परन्तु यह भ्रम है। यही कहा है ह्र जह कुवि वेस्सारत्तो मुसिज्जमाणो विमण्णए हरिसं। तह मिच्छवेसमुसिया गयं पि ण मुणंति धम्मणिहिं।। (उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला ) जैसे कोई वेश्यासक्त पुरुष धनादिक को ठगाते हुए भी हर्ष मानते हैं; उसीप्रकार मिथ्यावेष द्वारा ठगे गये जीव नष्ट होते हुए धर्मधन को नहीं जानते हैं। इन मिथ्यावेषवाले जीवों की सुश्रुषा आदि से अपना धर्मधन नष्ट होता है, उसका विषाद नहीं है, मिथ्याबुद्धि से हर्ष करते हैं। वहाँ कोई तो मिथ्याशास्त्रों में जो वेष निरूपित किये हैं, उनको धारण करते हैं; परन्तु उन शास्त्रों के कर्ता पापियों ने सुगम क्रिया करने से उच्चपद प्ररूपित करने में हमारी मान्यता होगी व अन्य बहुत जीव इस मार्ग में लग जायेंगे, इस अभिप्राय से मिथ्या उपदेश दिया है। उसकी परम्परा से विचार रहित जीव इतना भी विचार नहीं करते कि सुगमक्रिया से उच्चपद होना बतलाते हैं सो यहाँ कुछ दगा है। भ्रम से उनके कहे हुए मार्ग में प्रवर्तते हैं। दसवाँ प्रवचन तथा कोई शास्त्रों में तो कठिन मार्ग निरूपित किया है, वह तो सधेगा नहीं और अपना ऊँचा नाम धराये बिना लोग मानेंगे नहीं; इस अभिप्राय से यति, मुनि, आचार्य, उपाध्याय, साधु, भट्टारक, संन्यासी, योगी, तपस्वी, नग्न ह्न इत्यादि नाम तो ऊँचा रखते हैं और इनके आचारों को साध नहीं सकते; इसलिए इच्छानुसार नाना वेष बनाते हैं तथा कितने ही अपनी इच्छानुसार ही नवीन नाम धारण करते हैं और इच्छानुसार ही वेष बनाते हैं। इसप्रकार अनेकवेष धारण करने से गुरुपना मानते हैं; सो यह मिथ्या है। यहाँ कोई पूछे कि वेष तो बहुत प्रकार के दिखते हैं, उनमें सच्चे-झूठे वेष की पहिचान किसप्रकार होगी ? समाधान ह्न जिन वेषों में विषय-कषाय का किंचित् लगाव नहीं है, वे वेष सच्चे हैं। वे सच्चे वेष तीन प्रकार के हैं; अन्य सर्व वेष मिथ्या हैं। वही षटपाहुड़ में कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है ह्न एगं जिणस्स रूवं बिदियं उक्किट्ठसावयाणं तु / अवरट्ठियाण तइयं चउत्थ पुण लिंगदसणं णत्थि / / 18 / / ___ ( दर्शनपाहुड़) एक तो जिनस्वरूप निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनिलिंग, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों का रूप ह्न दशवीं, ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक का लिंग, तीसरा आर्यिकाओं का रूप ह यह स्त्रियों का लिंग ह्न ऐसे यह तीन लिंग तो श्रद्धापूर्वक हैं तथा चौथा कोई लिंग सम्यग्दर्शनस्वरूप नहीं है। इन तीन लिंग के अतिरिक्त अन्य लिंग को जो मानता है, वह श्रद्धानी नहीं है, मिथ्यादृष्टि है तथा इन वेषियों में कितने ही वेषी अपने वेष की प्रतीति कराने के अर्थ किंचित् धर्म के अंग को भी पालते हैं। जिसप्रकार खोटा रुपया चलानेवाला उसमें कुछ चांदी का अंश भी रखता है; उसीप्रकार धर्म का कोई अंग दिखाकर अपना उच्चपद मानते हैं।" 1. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 177-178

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