Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 60
________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार ११८ भरा पेट देखकर, पेट को चीरकर भोजन निकाल कर खा जाते थे । आपातकाल की ऐसी स्थिति में संघ ने आपातकालीन व्यवस्था बनाई कि जब मुनिराज आहार को जावे, तब एक वस्त्र लपेट कर जावें, बर्तन लेकर जावें, भोजन उसमें लावें और आकर जंगल में आहार करें। आहार के लिए नगर में जाते समय एक एढ़ी-टेढ़ी लाठी भी साथ में रखें। उसके पीछे चिन्तन यह था कि आहार लकड़ी के बर्तन में लायेंगे तो लोग बर्तन ही छीनेंगे, पेट को तो नहीं चीरेंगे। कपड़ा इसलिए कि भोजन के बर्तन को ढंक कर लाया जा सके। यद्यपि मुनिराजों को किसी से लड़ना नहीं है, लाठी से किसी को मारना भी नहीं है; तथापि निर्विष सर्प को भी फुंफकारना तो सीखना ही चाहिए, अन्यथा उनका रहना ही मुश्किल हो जायेगा । इस सिद्धान्त के अनुसार लाठी हाथ में रखना जरूरी समझा गया। लाठी का टेढ़ी-मेढ़ी होना भी इसलिए जरूरी था कि जिसे कोई चुराये नहीं । सुन्दरतम लाठी के चुराये जाने की संभावना अधिक रहती है। बर्तन भी लकड़ी के इसलिए कि उन्हें कोई चुराये नहीं; धातु के बर्तन कीमती होने से उनके चुराये जाने की संभावना अधिक हो जाती है। आपातकाल समाप्त हो जाने पर जब यह कहा गया कि अब हम अपने मूलरूप नग्न दिगम्बर अवस्था में आ जायें तो बहुत कुछ लोग मूल अवस्था में आ गये, पर कुछ सुविधाभोगी तर्क करने लगे कि जब हम बारह वर्ष तक उक्त स्थिति में रहते हुए मुनिराज रह सकते हैं तो सदा क्यों नहीं रह सकते ? इसप्रकार अकाल के समय उज्जैन में रह गया संघ भी विभाजित हो गया। जो लोग सफेद वस्त्र धारण करके भी अपने को मुनिराज मानने लगे थे, वे श्वेताम्बर कहलाये और शेष नग्न दिगम्बर संत दिगम्बर कहे जाने लगे। आचार्य भद्रबाहु के साथ गये लोग तो दिगम्बर थे ही। इस घटना के पहले न तो किसी को दिगम्बर कहा जाता था, न आठवाँ प्रवचन ११९ किसी को श्वेताम्बर; सभी दिगम्बर ही रहते थे; पर सभी का नाम तो एक जैन साधु ही था । श्वेताम्बर मुनिराज भी आरंभिक अवस्था में उस समय ही वस्त्र ग्रहण करते थे कि जब भोजन सामग्री लेने नगर में जाते थे, शेष काल जंगल में तो वे नग्न ही रहते थे; पर धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आ गई कि वे चौबीसों घंटे वस्त्रों में रहने लगे। इसप्रकार जब सवस्त्र मुक्ति आ गई तो फिर उसके सहारे स्त्री मुक्ति और गृहस्थ मुक्ति भी आ गई। भाग्य की बात है कि तबतक भगवान महावीर की वाणी कंठाग्र ही चल रही थी। जितना भी जैन साहित्य अभी उपलब्ध होता है, वह सभी आचार्य भद्रबाहु के बाद का ही है। अतः दोनों परम्पराओं का साहित्य भी स्वतः ही अलग-अलग हो गया। दिगम्बराचार्यों ने जो साहित्य लिखा, वह तो उन्होंने स्वयं के नाम से ही लिखा और भगवान महावीर की आचार्य परम्परा से उसे जोड़ा। यही कहा कि भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति आदि गणधरों से लेकर हमारे गुरु पर्यन्त जो अविच्छिन्न परम्परा चली आ रही है; हमें यह ज्ञान उसी से प्राप्त हुआ है और उसे ही हम लिखित रूप से व्यवस्थित कर रहे हैं; पर श्वेताम्बर आचार्यों ने जो साहित्य लिखा, उसे गणधरों द्वारा लिखित घोषित किया। नाम भी वैसे ही रखे जो द्वादशांग जिनवाणी में बताये गये हैं। जैसे आचारांग, सूत्रकृतांग आदि । पर उन ग्रन्थों का जो स्तर है; वह द्वादशांग के पाठी गणधरदेव की प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है। यही कारण है कि श्वेताम्बर मत की समीक्षा करते समय पण्डित टोडरमलजी सबसे पहले उनके यहाँ उपलब्ध साहित्य के संबंध में बात करते हैं। अनेक तर्क और युक्तियों से यह प्रमाणित करते हैं कि आज जो ग्रन्थ उनके यहाँ उपलब्ध होते हैं; वे महावीर के प्रथम गणधर द्वादशांग श्रुत के ज्ञाता श्रुतकेवली इन्द्रभूति गौतम के द्वारा लिखित नहीं हो सकते।

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