Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 64
________________ १२७ १२६ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार अत: यह बात पक्की ही है कि जो वस्तु नुकसान नहीं पहुंचा सकती, वह लाभ भी नहीं पहुंचा सकती। ___कुछ लोग कहते हैं कि मैं तो किसी से भी राग-द्वेष नहीं रखता। डॉक्टर की दवाई तो लेता ही हूँ, साथ में वैद्यजी की भी ले लेता हूँ। होम्योपैथिक की मीठी-मीठी गोलियाँ तो चलती ही रहती हैं। साथ में झाड़ा।क, एक्यूप्रेशर और रेकी भी करवा लेता हूँ। सभी कुछ एक साथ चलता है; जिससे लाभ होना होगा, हो जायेगा। इसीप्रकार धर्म के संबंध में भी लोग बहुत उदार हैं। जिनेन्द्र भगवान के साथ-साथ सभी देवी-देवता और पीर-पैगम्बर की भी आराधना चलती रहती है; क्योंकि उनकी मान्यता ऐसी है कि जिससे जो लाभ होता होगा, हो जायेगा; हानि तो कुछ है ही नहीं। अरे, भाई ! ऐसा नहीं होता। मान लीजिए हमें उच्च रक्तचाप रहता है तो डॉक्टर उसे ठीक करने की दवाई देगा और वैद्य भी देगा; तब क्या दवाई की मात्रा (डोज) दुगुनी (डबल) नहीं हो जायेगी ? दुगुनी मात्रा से रक्तचाप इतना कम हो सकता है कि जीवन भी संकट में पड़ जावे। जब दवाइयों में ऐसा नहीं चल सकता है तो धर्म के बारे में कैसे चलेगा ? रागी और वीतरागी की पूजा एक साथ कैसे हो सकती है ? इसलिए ऐसा मानना सही नहीं है कि यदि लाभ नहीं होगा तो नुकसान भी नहीं होगा। उक्त संदर्भ में पण्डित टोडरमलजी का कहना यह है कि अरे भाई, यदि बिगाइ नहीं होता तो हम निषेध क्यों करते ? सबसे बड़ा बिगाड़ तो यह है कि कुदेवों की आराधनारूप इस गृहीत मिथ्यात्व से अनादिकालीन अगृहीत मिथ्यात्व पुष्ट होता है; जिसके कारण यह जीव अनन्तकाल तक संसार में रुलता हुआ अनंत दुःख प्राप्त करता है और दूसरे इसप्रकार की प्रवृत्तियों से पाप बंध भी होता है। इस पर भी वह कहता है कि मिथ्यात्वादि भाव तो अतत्त्वश्रद्धान आठवाँ प्रवचन होने पर होते हैं और पापबंध बुरे कार्य करने से होता है; क्षेत्रपालादि के मानने से मिथ्यात्वभाव और पापबंध किसप्रकार होता है ? इसके उत्तर में पण्डितजी कहते हैं कि पहली बात तो यह है कि परपदार्थों को इष्टानिष्ट मानना मिथ्या है, मिथ्यात्व है; क्योंकि अन्य पदार्थ किसी के शत्रु-मित्र हैं ही नहीं और कुदेवों को मानने से परपदार्थों में इष्टानिष्टबुद्धि पुष्ट होती है, वृद्धि को प्राप्त होती है, मिटती नहीं है। _दूसरी बात यह है कि कुदेवादिक आजतक किसी को भी धनादिक पदार्थ देते देखे नहीं गये और छीनते भी नहीं देखे गये; अतः इन्हें माननेपूजने से कोई लाभ नहीं है; अपितु इनको मानना-पूजना अनर्थकारी ही है। __कुदेवादि के मानने-पूजनेरूप परिणाम तीव्र मिथ्यात्वादिरूप हैं; इसकारण इनके रहते हुए मुक्ति का मार्ग भी अत्यन्त दुर्लभ हो जाता है। मानने शब्द का अर्थ पूजना भी होता है और अस्तित्व स्वीकार करना भी होता है। इसलिए हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इस शब्द का अर्थ हम प्रकरणानुसार ही करें। एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि क्या आप व्यन्तरादिक देवों को मानते हैं ? जब मैंने कहा ह्र "हाँ, मानते हैं।” तब वह एकदम नाराज होते हुए कहने लगा ह्न "तुम, पण्डित होकर, तेरापंथी होकर, टोडरमल स्मारक में बैठकर व्यन्तरों को मानते हो ह्र ऐसा कहते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती ?" ___ मैंने अत्यन्त धैर्य के साथ कहा ह्र “क्या पण्डित टोडरमलजी व्यन्तरों को नहीं मानते थे, क्या वे तत्त्वार्थसूत्र को नहीं मानते थे ? अरे भाई ! चार प्रकार के देवों में एक प्रकार के देव व्यन्तरदेव भी हैं। हम ऐसा मानते हैं कि देवों में एक व्यन्तरदेवों की भी जाति है, लोक में उनका भी अस्तित्व है। यह बात प्रत्येक जैनी को मानना चाहिए,

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