Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 61
________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार द्वादशांगरूप जो श्रुतज्ञान है; उसमें आचारांग के अठारह हजार पद माने गये हैं; श्वेताम्बरों के यहाँ जो आचारांग सूत्र प्राप्त होता है, वह बहुत छोटा है। १२० इस पर वे कहते हैं कि उसका कुछ अंश रखा गया है। तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यह अधूरा है या पूरा ? यदि खो गया है तो यह प्रश्न भी उपस्थित होता है कि आरंभ का खोया है, मध्य का खोया है या फिर अन्त का खो गया है ? यदि मध्य का खोया तो प्राप्तांश टूटक रहा । ऐसा टूटा-फूटा ग्रन्थ प्रामाणिक कैसे माना जा सकता है ? ऐसी और भी अनेक निराधार बातें हैं, जो तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं। जिन्हें सिद्ध करना संभव नहीं है; उन बातों को अछेरा कहकर सामनेवाले का मुँह बंद करने का प्रयास किया गया है। 'अछेरा' का अर्थ यह है कि इसे छेड़ो मत, इसके बारे में तर्कवितर्क मत करो; बस यों ही मान लो कि ये ऐसा ही है, अतिशय है। इस बारे में भी पण्डितजी ने समीक्षा की है, जो मूलतः पठनीय है। इसके बाद श्वेताम्बरों द्वारा माने गये देव, गुरु और धर्म के संबंध में विस्तार से विचार किया गया है। उक्त सन्दर्भ में विस्तारभय से यहाँ कुछ विशेष कहना संभव नहीं है; जिन्हें विशेष जिज्ञासा हो, वे मोक्षमार्गप्रकाशक के उक्त प्रकरण का गंभीरता से अध्ययन अवश्य करें। इसके बाद वे ढूंढ़कमत अर्थात् स्थानकवासी सम्प्रदाय की समीक्षा करते हैं। श्वेताम्बर समाज में मुँहपट्टी का प्रयोग करनेवाले स्थानकवासी और तेरापंथी नाम से दो संप्रदाय हैं। स्थानकवासी सम्प्रदाय के संत कपड़े की जिन मुँहपट्टियों का प्रयोग करते हैं, वे मुँहपट्टियाँ अपेक्षाकृत अधिक चौड़ी होती हैं और उनमें डोरी मात्र ऊपर की ओर ही रहती है; किन्तु श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदायवालों की मुँहपट्टियाँ अपेक्षाकृत कम चौड़ाई की होती हैं और उनमें नीचे और ऊपर ह्न दोनों ओर डोरी लगी होती है। आठवाँ प्रवचन १२१ पण्डित टोडरमलजी के समय या तो श्वेताम्बर तेरापंथ सम्प्रदाय होगा ही नहीं। यदि होगा भी तो, वह अत्यन्त आरंभिक अवस्था में होगा। यही कारण है कि उन्होंने मोक्षमार्गप्रकाशक में उनकी कोई चर्चा नहीं की। स्थानकवासी (दूढ़िया) सम्प्रदाय उनके दो-ढाई सौ वर्ष पहले आरंभ हो चुका था। उसकी मान्यताओं की समीक्षा इस मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रंथ में विस्तार से की गई है। स्थानकवासी सम्प्रदाय में मुँहपट्टी के साथ-साथ दूसरा अन्तर मूर्तिमंदिर के निषेध का है। वे मंदिर नहीं बनवाते, मूर्तियाँ प्रतिष्ठित नहीं करते, मंदिरों के स्थान पर स्थानक बनवाते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति की भी समीक्षा यहाँ की गई है। पण्डितजी कहते हैं कि अहिंसा का एकान्त पकड़ कर प्रतिमा, चैत्यालय (मंदिर) और पूजनादि क्रिया का निषेध करना ठीक नहीं है; क्योंकि उनके (स्थानकवासियों के) शास्त्रों में भी प्रतिमा आदि का निरूपण पाया जाता है। भगवती सूत्र में ऋद्धिधारी मुनि का निरूपण है। उक्त प्रकरण में ऐसा पाठ है कि मेरुगिरि आदि में जाकर 'तत्थ चेययाई वंदई' इसका अर्थ यह है कि वहाँ जाकर चैत्यों की वंदना करते हैं। 'चैत्य' शब्द का प्रयोग प्रतिमा के अर्थ में होता है ह्न यह बात तो सर्वजन प्रसिद्ध ही है। इस पर वे कहते हैं कि चैत्य शब्द के ज्ञानादि अनेक अर्थ होते हैं ? अतः चैत्य शब्द का अर्थ प्रतिमा न लेकर ज्ञान लेना चाहिए; किन्तु उनका यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ज्ञान की वंदना तो कहीं भी की जा सकती है। ज्ञान की वंदना के लिए मेरुगिरि पर या नन्दीश्वर द्वीप में जाने की क्या आवश्यकता है ? अतः यहाँ चैत्य शब्द का प्रतिमा अर्थ ही सही है। चैत्यों के विराजमान होने से उक्त जिनमंदिरों को चैत्यालय कहा जाता है। अरे भाई ! जिसप्रकार काष्ठ-पाषाण आदि की महिलाओं की मूर्ति

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