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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार
वे अपनी इस शैली की सार्थकता सिद्ध करते हुये अनेक तर्क देते हैं, उदाहरण देते हैं। वे वैद्य के उदाहरण से अपनी बात को स्पष्ट करते हैं। उनका यह उदाहरण दूसरे अधिकार से पाँचवे अधिकार तक चलता है।
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वे लिखते हैं कि जब कोई रोगी वैद्य के पास आता है तो सर्वप्रथम वैद्य उसे रोग का स्वरूप समझाता है, उसकी दुखरूपता समझाता है, उसका कारण बताता है; उसके बाद रोग से मुक्ति का उपाय बताता है। इसीप्रकार पण्डितजी सर्वप्रथम इस संसारी जीव की वर्तमान में जो अवस्था है, वह दुःखरूप है ह्र इसका ज्ञान करायेंगे। उसके बाद उसके होने के कारणों पर प्रकाश डालेंगे; तत्पश्चात् उससे बचने का उपाय बतायेंगे ।
रोगी को उसकी तकलीफें बताने के बाद वैद्य यह बताता है कि तुमने क्या-क्या बदपरहेजी की है, जिसके कारण तुम्हें इतनी तकलीफ उठानी पड़ रही है। इसीप्रकार पण्डितजी संसार दुःखों का स्वरूप बताने के बाद यह बताते हैं कि तुमने मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का सेवन किया है; इसकारण तुझे ये अनन्त दुःख उठाने पड़ रहे हैं। यदि इन मिथ्यात्वादि से बचना चाहते हो, छूटना चाहते हो तो पहले इन मिथ्यात्वादि का स्वरूप गहराई से समझना होगा।
पण्डित टोडरमलजी अपनी इस कृति को शास्त्र कहते हैं ।
जो लोग ऐसा कहते हैं कि शास्त्र तो आचार्य लिखते हैं, पण्डित लोग तो पुस्तकें लिखते हैं, किताबें लिखते हैं। इसप्रकार वे शास्त्र और पुस्तकों में भेद डालते हैं। जो भी हो, पर पण्डित टोडरमलजी अपने इस ग्रन्थ को शास्त्र मानते हैं। उनका मानना है कि यह शास्त्र इसलिए महान नहीं है कि इसे मैंने लिखा है, अपितु इसलिए महान है कि इसमें मोक्ष के मार्ग पर प्रकाश डाला गया है। इसमें वही बात कही गई है, जो गणधरदेव की उपस्थिति में, सौ इन्द्रों की उपस्थिति में तीर्थंकर परमात्मा ने बताई थी, उनकी दिव्यध्वनि में आई थी।
कोई ग्रन्थ महान शास्त्र है या साधारण पुस्तक ह्न इसका निर्णय उसमें
दूसरा प्रवचन
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प्रतिपादित विषयवस्तु के आधार पर होता है, न कि किसी व्यक्ति विशेष के आधार पर । मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रंथ भी अपनी विषयवस्तु के कारण शास्त्र है, महाशास्त्र है; क्योंकि इसमें आगम के आलोक में, तर्क की कसौटी पर कस कर, स्वानुभव से प्रकाशित करके उसी मोक्ष के मार्ग पर प्रकाश डाला गया है; जिसकी कामना प्रत्येक आत्मार्थी को होती है।
पूज्य गुरुदेवश्री कानजी स्वामी के सान्निध्य में रहनेवाले पण्डित श्री खीमचन्दभाई का एक पत्र मुझे प्राप्त हुआ, उसमें लिखा था कि आपने 'क्रमबद्धपर्याय' नामक शास्त्र लिखकर इतना महान कार्य किया है कि दुनियाँ आपको युगों तक याद रखेगी।
जब मैंने यह लिखा कि आप मेरी पुस्तक को शास्त्र कहते हैं तो उनका उत्तर आया कि यह कृति इसलिए महान नहीं कि इसे आपने लिखा है, अपितु इसलिए महान है कि इसमें जैनदर्शन के एक महान सिद्धान्त का आगमानुसार सयुक्ति प्रतिपादन हुआ है । अत: यह शास्त्र नहीं, महान शास्त्र है।
वस्तुतः बात तो यह है कि चाहे कुन्दकुन्दादि आचार्यों द्वारा लिखा गया हो, चाहे पण्डित टोडरमलजी आदि विद्वानों द्वारा लिखा गया हो; पर वह सभी साहित्य शास्त्र हैं कि जिसमें आगमानुसार युक्तिसंगत परम सत्य का प्रतिपादन हो और वीतरागता का पोषण किया गया हो।
कुछ लोग भाषा के संदर्भ में भी इसीप्रकार का आग्रह रखते हैं। वे कहते हैं कि शास्त्र तो प्राकृत संस्कृत में लिखे जाते हैं; पर यह मोक्षमार्गप्रकाशक तो लोक भाषा हिन्दी में लिखा गया है।
अरे भाई ! भाषा तो युग के अनुसार बदलती रहती है। भगवान की दिव्यध्वनि भी तो अठारह महा भाषाओं और सात सौ लघु भाषाओं प्रस्फुटित हुई थी। उक्त दिव्यध्वनि में समागत तत्त्व को एक-दो भाषाओं में कैसे बांधा जा सकता है ?
पण्डित टोडरमलजी ने हिन्दी भाषा में इसलिए लिखा कि वे सर्वज्ञ