Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 48
________________ ९४ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार पौत्र तो इष्ट-अनिष्ट का यह कुछ भी उपाय नहीं करता और यहाँ पुत्र, आदि मेरी सन्तति में बहुत काल तक इष्ट बना रहे, अनिष्ट न हो; ऐसे अनेक उपाय करता है। किसी के परलोक जाने के बाद इस लोक की सामग्री द्वारा उपकार हुआ देखा नहीं है; परन्तु इसको परलोक होने का निश्चय होने पर भी इस लोक की सामग्री का ही पालन रहता है। तथा विषय - कषायों की परिणति से तथा हिंसादि कार्यों द्वारा स्वयं दुःखी होता है, खेदखिन्न होता है, दूसरों का शत्रु होता है, इस लोक में निंद्य होता है, परलोक में बुरा होता है ह्र ऐसा स्वयं प्रत्यक्ष जानता है; तथापि उन्हीं में प्रवर्तता है। इत्यादि अनेकप्रकार से प्रत्यक्ष भासित हो, उसका भी अन्यथा श्रद्धान करता है, जानता है, आचरण करता है; सो यह मोह का माहात्म्य है। इसप्रकार यह जीव अनादि से मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप परिणमित हो रहा है। इसी परिणमन से संसार में अनेक प्रकार का दुःख उत्पन्न करनेवाले कर्मों का संबंध पाया जाता है। यही भाव दुःखों के बीज हैं, अन्य कोई नहीं । इसलिए हे भव्य ! यदि दुःखों से मुक्त होना चाहता है तो इन मिथ्यादर्शनादिक विभावभावों का अभाव करना ही कार्य है; इस कार्य के करने से तेरा परम कल्याण होगा । " उक्त कथन में पण्डित टोडरमलजी ने अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीवों की परिणति का जो चित्र प्रस्तुत किया है; वह न केवल पण्डितजी के समय की स्थिति का चित्र है, अपितु आज भी सर्वत्र वही दृष्टिगोचर होता है। इससे स्पष्ट होता है कि यह स्थिति किसी स्थान विशेष की नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व की है। इसीप्रकार मात्र वर्तमानकाल की नहीं, सदा की है। तात्पर्य यह है कि अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव जहाँ भी होंगे और जब भी होंगे, वहाँ और तब उनकी यही स्थिति रहनेवाली है। पण्डितजी कहते हैं कि अपने क्षयोपशमज्ञान में यह स्पष्ट हो जाने पर १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ९३-९४ छठवाँ प्रवचन ९५ भी कि मेरा आवास इस देह में अवश्य है, पर मैं देह नहीं हूँ। मैं तो देह से भिन्न ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा हूँ। इस देह का संयोग तो अत्यल्प काल का है; अन्ततः तो मुझे इसे छोड़कर ही जाना है; फिर भी सम्पूर्ण जीवन इस शरीर की सेवा में लगा देता है, आत्मा की तो सुध ही नहीं लेता । इसीप्रकार स्त्री-पुत्रादि और धनादि का संयोग भी अत्यल्प काल का है। यह अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव अपना सम्पूर्ण जीवन देह, स्त्रीपुत्रादि और धनादि की सम्हाल में लगा देता है। अपने आत्मा के संदर्भ में कोई विचार ही नहीं करता। भक्ष्य - अभक्ष्य से शरीर का पोषण और न्याय-अन्याय से धन का उपार्जन करके अपार पाप का संग्रह करता है। पाप को तो साथ ले जाना पड़ता है और धन यहीं छूट जाता है। देह की आगामी पीढ़ी की चिन्ता मरते दम तक करता है, पर अगले भव में आत्मा का क्या होगा ह्र इसके संबंध में क्षणभर भी नहीं सोचता । यह तो हम सभी जानते हैं कि मरना तो है ही। किसी को दो-चार वर्ष बाद तो, किसी को दस-बीस वर्ष बाद । यदि किसी की उम्र कम है तो वह अधिक से पचास-साठ वर्ष और जियेगा। सौ वर्ष के भीतर तो सभी को जाना है। हजार दो हजार वर्ष तक कोई रहनेवाला नहीं है। ऐसा जानकर भी मृत्यु के अन्तिम क्षण तक इस भव की ही चिन्ता करता है, अगले भव के बारे में कोई विचार नहीं करता । पण्डितजी तो यहाँ तक लिखते हैं कि यह मोह की मदिरा पीकर पागल जैसा हो गया है। कभी दार्शनिक मुद्रा बनाकर कहता है ह्र हंसा उड़ जायेगा, पंछी उड़ जायेगा; अर तू यही पड़ा रह जायेगा । औरत देहरी तक साथ देगी, बेटा मसान तक ले जायेगा । सब मिलकर तुझे जला देंगे, तू धू-धूकर जल जायेगा । हंसा उड़ जायेगा, पंछी उड़ जायेगा । कुछ लोग कहते हैं कि यह वैराग्य का गीत है, कुछ कहते हैं कि इसमें

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