Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 51
________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार इस पर कुछ लोग कहते हैं कि क्यों गला खराब कर रहे हो; इस नक्कारखाने में कौन सुनता है तुम्हारी इस तूती की आवाज को । उनसे हमारा कहना यह है कि जिनकी भली होनहार होगी, जिनकी कलब्धि आ गई होगी, जिनका संसार सागर का किनारा निकट आ गया होगा; वे निकटभव्यजीव सुनेंगे हमारी बात । यह तो आप जानते ही हैं कि सागर के भीतर अन्तर गहराई में वडवाग्नि जलती है। जिसप्रकार पेट में लगी आग को जठराग्नि कहते हैं, जंगल में लगी आग को दावाग्नि कहते हैं; उसीप्रकार सागर के तल में जलनेवाली आग को वडवाग्नि कहते हैं। एकबार सागर ने वडवाग्नि से कहा कि तू हमारे पेट में लाखों वर्ष से जल रही है; फिर भी हमारा तो कुछ नहीं बिगड़ा । जरा-सी गर्मी पड़ती है तो नदियाँ सूख जाती हैं, तालाब सूख जाते हैं; पर बाहर से सूरज तप रहा है, अन्दर तू जल रही है; पर क्या हुआ हमारा ? व्यर्थ ही क्यों जल रही है। १०० asवाग्नि ने बड़ी ही विनम्रता से कहा कि पेट की अग्नि में दस तोला घी पड़ जावे तो बुझ जाती, चूले की आग एक लोटा पानी पड़ने से बुझ जाती है, जंगल की आग भी मेघ वर्षा होने से बुझ जाती है; पर मेरे ऊपर लाखों वर्षों से समुद्रों पानी पड़ा है, फिर भी मैं जिन्दा हूँ ह्र मेरी सत्ता के लिए क्या इतना ही पर्याप्त नहीं है ? यह तो आपने सुना ही होगा कि जब नदियों में बाढ़ आती है तो उनके तट पर बसे ग्राम, नगर बह जाते हैं, उजड़ जाते हैं; संकट में पड़ जाते हैं। यदि सागर में बाढ़ आ जाय तो क्या होगा ? इसकी कल्पना की है कभी आपने ? अरे, भाई ! सागर में कभी बाढ़ नहीं आती; क्योंकि उसके पेट में वडवाग्नि जल रही है। उसने सागर पर अंकुश लगा रखा है। सूरज का ताप उसके पानी को निरन्तर बादलों के रूप में उड़ा कर ले जा रहा है। उक्त अग्नि ने और सूरज की गर्मी ने भले ही सागर को पूरी सातवाँ प्रवचन १०१ तरह सुखा नहीं पाया; पर बेकाबू भी नहीं होने दिया, मर्यादा में रखा। क्या यह वडवाग्नि की कम उपयोगिता है ? जिसप्रकार अत्यन्त शक्तिशाली हाथी को छोटा-सा अंकुश काबू में रखता है, उसे उश्रृंखल नहीं होने देता; उसीप्रकार इतने बड़े सागर को वडवाग्नि का अंकुश काबू रखता है, उश्रृंखल नहीं होने देता। आज के इस मनुष्य लोक में गाँव-गाँव में, गली-गली में परकर्तृत्व के प्रतिपादन का बोल-बाला है। जहाँ देखो, वहाँ सर्वत्र उसकी ही चर्चा है। अकर्त्तावादी जैनदर्शन को माननेवाले भी कर्तृत्व के अहंकार में डूबे जा रहे हैं; सारी दुनिया को देह की सेवा में लगा रहे हैं, घर-परिवार से राग करने की प्रेरणा दे रहे हैं, देश और धर्म की रक्षा के नाम पर मरने-मारने को उकसा रहे हैं; ऐसे तूफानों से आन्दोलित मनुष्यलोक में यदि हम, पर में एकत्व - ममत्व का निषेध कर रहे हैं, पर के कर्तृत्वभोक्तृत्व के विरोध की आवाज उठा रहे हैं तो क्या हमारे अस्तित्व के लिए इतना पर्याप्त नहीं है ? भोगों के इस सागर में जो थोड़ी-बहुत मर्यादा दिखाई देती है; वह हमारे प्रयासों का ही प्रभाव है, हमारे प्रतिपादन के अंकुश का ही परिणाम है। आपका यह कहना भी सही नहीं है कि इस नक्कारखाने में कौन सुनता हमारी इस तूती की आवाज को। अरे, भाई ! हमारी आवाज को सुननेवाले, हमारे लेखन को पढ़नेवाले, हमारी प्रेरणा से सन्मार्ग में लगनेवाले भी लाखों लोग हैं। न हमें श्रोताओं की कमी है, न पाठकों की और सन्मार्ग में लगनेवालों की भी कमी नहीं है। इस पर वे कहते हैं कि यदि ऐसा है तो फिर आप ऐसा क्यों कहते हैं कि कौन सुनता है हमारी बात । अरे, भाई ! अरबों में, लाखों ने सुन लिया, लाखों ने पढ़ लिया; तो भी तो ऊँट के मुँह में जीरा ही है ? इसलिए कभी-कभी हम कहते हैं कि कौन सुनता है हमारी आवाज ? पर आपने जो यह कहा कि इस

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