Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 54
________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार परिस्थितियाँ पूरी तरह बदल गई थीं। समाज में पहले जैसी सहिष्णुता नहीं रही थी और सात्विक वाद-विवाद, वितंडावाद का रूप ले चुके थे । साहित्य के क्षेत्र में भी इसका असर देखा जा सकता था। इसकारण उस समय इसप्रकार का समीक्षात्मक साहित्य लिखना खतरे से खाली नहीं रह गया था । उक्त परिस्थितियों से पण्डित टोडरमलजी भलीभाँति परिचित थे । फिर भी उन्होंने हम-तुम जैसे लोगों के उपकार के लिये जान की बाजी लगाकर यह काम किया। १०६ यह लिखते समय उनके चित्त में अनेक विकल्प खड़े हुए थे, जिनकी झलक उनके निम्नांकित कथनों में देखी जा सकती है ह्र “तथा वह कहता है कि ह्न यह तो सच है; परन्तु अन्यमत की निन्दा करने से अन्यमती दुःखी होंगे, विरोध उत्पन्न होगा; इसलिए निन्दा किसलिए करें ? वहाँ कहते हैं कि ह्न हम कषाय से निन्दा करें व औरों को दुःख उपजायें तो हम पापी ही हैं; परन्तु अन्यमत के श्रद्धानादि से जीवों के अतत्त्वश्रद्धान दृढ़ हो, जिससे संसार में जीव दुःखी होंगे; इसलिए करुणा भाव से यथार्थ निरूपण किया है। कोई बिना दोष दुःख पाता हो, विरोध उत्पन्न करे तो हम क्या करें ? जैसे ह्न मदिरा की निन्दा करने से कलाल दुःखी हो, कुशील की निन्दा करने से वेश्यादिक दुःख पायें और खोटा खरा पहिचानने की परीक्षा बतलाने से ठग दुःखी हो तो हम क्या करें ? इसीप्रकार यदि पापियों के भय से धर्मोपदेश न दें तो जीवों का भला कैसे होगा ? ऐसा तो कोई उपदेश है नहीं, जिससे सभी चैन पावें ? तथा वे विरोध उत्पन्न करते हैं; सो विरोध तो परस्पर करे तो होता है; परन्तु हम लड़ेंगे नहीं, वे आप ही उपशांत हो जायेंगे। हमें तो अपने परिणामों का फल होगा।" १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ- १३८ सातवाँ प्रवचन १०७ इसप्रकार हम देखते हैं कि उन्होंने विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में शान्त रहने के संकल्प के साथ अत्यन्त करुणा भाव से इस प्रकरण पर कलम चलाई थी। फिर भी वे विरोधियों के षड्यंत्र के शिकार हो गये । उस समय के बाद से परिस्थितियाँ तेजी से बदलती गईं और वादविवाद मात्र स्कूल-कॉलेजों में होनेवाली वाद-विवाद प्रतियोगिताओं तक सीमित होकर रह गये हैं। आज इसप्रकार के साहित्य का लेखन भी देखने में नहीं आता। प्राचीनकाल में विभिन्न दर्शनों में मूलभूत अन्तर क्या है ? ह्न इस बात की खोज की जाती थी और उनकी प्रामाणिकता पर पूरी गंभीरता से विचार किया जाता था; पर आजकल विभिन्न दर्शनों में क्या अन्तर हैह्र इसकी चर्चा न करके, उनमें क्या समानता है ह्न यह खोजा जाने लगा है; क्योंकि आज मानस यह बन गया है कि विभिन्न दर्शनों में अन्तर है, इसकी चर्चा करने से देश व समाज की एकता खण्डित होती है और उन दर्शनों में से किसकी कितनी बात तर्क की कसौटी पर खरी उतरती है और कितनी नहीं; इसकी चर्चा मात्र से वातावरण विषाक्त हो जाता है। अतः आजकल के विश्वधर्म सम्मेलनों में तो यही चर्चा होती है कि लगभग सभी दर्शन समान ही हैं। अब स्वमतमण्डन और परमतखण्डन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अब तो अहो रूपं, अहो ध्वनि का जमाना आ गया है। हाँ, विश्वविद्यालयों में अभी भी यही पढ़ाया जाता है कि विभिन्न दर्शनों में परस्पर अन्तर क्या है ? परीक्षाओं में प्रश्न भी इसीप्रकार के आते हैं कि जैनदर्शन और बौद्धदर्शन में मूलभूत अन्तर क्या है ? यद्यपि यह सत्य है कि अन्तर की चर्चा से वातावरण विक्षुब्ध होता है; तथापि विक्षुब्धता का मूल कारण सहिष्णुता का अभाव है, दार्शनिक चर्चा नहीं। अतः समाज को सहिष्णु बनाने का प्रयास होना चाहिये । सभी समान हैं ह्र ऐसा कहने से तो विभिन्न दर्शनों की पहिचान ही समाप्त

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