Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार इसप्रकार ज्ञानावरण-दर्शनावरण के क्षयोपशम से हुआ इन्द्रियजनित ज्ञान है, वह मिथ्यादर्शनादि के निमित्त से इच्छा सहित होकर दुःख का कारण हुआ है।" जब ज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञान हो जाता है; तब अरहंत-सिद्ध अवस्था में जानना तो सम्पूर्ण लोकालोक का हो जाता है और जानने की इच्छा रहती नहीं; यही कारण है कि अरहंत-सिद्ध अनन्त सुखी हैं। वहाँ अनन्तकाल तक सुखी रहने की दुहरी (डबल) व्यवस्था है। छद्मस्थ अवस्था में इच्छा तो सबको जानने की थी और जानना बहुत कम होता था और केवलज्ञान होने पर जानने की इच्छा समाप्त हो गई और जानना सबका हो गया। अतः अब दुःख होने का कोई कारण ही नहीं रहा। दुःख का कारण तो एकमात्र इच्छा थी, उसके कारण ही नहीं जाननेरूप अज्ञान दुःख का कारण बन रहा था। अब इच्छा रही नहीं और जानना सम्पूर्ण जगत का हो गया। अतः अब तो सुख ही सुख है। वस्तुतः बात यह है कि अनेक प्रकार की इच्छाओंवाले परोक्ष ज्ञानी सुखी नहीं हो सकते। इस तथ्य का चित्र प्रस्तुत करते हुये राष्ट्रकवि मैथिलीशरणजी गुप्त 'पंचवटी' नामक पुस्तक में लिखते हैं कि ह्र वनवास के अवसर पर पंचवटी की एक कुटिया में राम और सीता सुख से सो रहे थे और लक्ष्मण बाहर पहरा दे रहे थे। मन्द-मन्द सुगन्धित हवा चल रही थी और स्वच्छ चाँदनी अपनी आभा बिखेर रही थी। ___ मध्यरात्रि में प्रकृति की सुन्दरतम छटा से आनंदविभोर लक्ष्मण सोचते हैं कि हम यहाँ कितने मजे में हैं, प्रसन्न हैं और प्रकृति माँ की गोद में प्रफुल्लित हो रहे हैं; परन्तु दुःख इस बात का है कि हमारे इस आनन्द को हमारी माताएँ नहीं जानतीं और वे यह सोच-सोचकर दुःखी हो रही होंगी कि हम वन में न जाने कितने कष्ट में होंगे? १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-४७ तीसरा प्रवचन राजमहल में न उन्हें कोई कष्ट है और न हमें इस मंगलमय जंगल में कोई असुविधा है। इसप्रकार दोनों ओर अनुकूलता होने पर भी, सुखसुविधा होने पर भी, दोनों ही एक-दूसरे के दुःखी होने की कल्पना मात्र से दःखी हो रहे हैं। क्योंकि हम दोनों एक-दूसरे की अनुकूलता को नहीं जानते। परोक्षज्ञान का यही तो दोष है। अरे भाई ! हमारा ज्ञान भी इन्द्रियाधीन हो रहा है और हमारा सुख भी इन्द्रियाधीन हो रहा है। हमें न तो अतीन्द्रियज्ञान है और न अतीन्द्रियसुख। यही कारण है कि मोह की विद्यमानता से ज्ञान का परोक्षपना, पराधीनपना हमारे लिये अनन्तदुःख का कारण बन रहा है। यद्यपि यह परम सत्य है कि ज्ञानावरण के उदय से जो नहीं जाननेरूप औदायिक अज्ञान होता है, वह कर्मबंध का कारण नहीं है; तथापि मोहोदय के साथ होनेवाला क्षायोपशमिक अज्ञान-मिथ्याज्ञान अनन्तदुःख का कारण बन रहा है। मोहोदय से जानने की इतनी तीव्र इच्छा होती है कि मौत की कीमत पर भी यह सबकुछ जान लेना चाहता है। यद्यपि हृदयरोगी खतरनाक झूलों पर नहीं झूल सकते; तथापि यह कहता है मुझे देखना है कि इस झूले पर झूलने से कैसा लगता है ? मरना तो एक न एक दिन सबको ही है। इसप्रकार मौत की कीमत पर भी वह झूले पर झूलकर देखना चाहता है। पर्यटन का सम्पूर्ण व्यवसाय इस देखने-जानने की इच्छा के आधार पर ही चल रहा है। भारतीय लोगों को अमेरिका देखना है और अमरीकी लोगों को भारत देखना है। मात्र देखने-जानने की इच्छा की पूर्ति के लिये हम सम्पूर्ण विश्व के चक्कर लगाते रहते हैं। अरे भाई ! जब केवलज्ञान हो जायेगा, तब सबकुछ सहज ही जानने में आ जायेगा। इस पर यह कहता है कि जब जानने की इच्छा ही नहीं रहेगी तो जानने का क्या लाभ है ? कैसी विचित्र स्थिति है कि जब हम मौत की कीमत पर सबको एक साथ जान लेना चाहते हैं, देख लेना चाहते हैं तब तो सबका

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77