Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 16
________________ तीसरा प्रवचन महापण्डित टोडरमलजी को आचार्यकल्प कहा जाता है; क्योंकि उन्होंने जिनागम की जो सेवा की है; वह किसी भी रूप में आचार्यों से कम नहीं है। यद्यपि उन्होने आचार्यों जैसा महान कार्य किया है; तथापि उन्हें आचार्य न कहकर आचार्यकल्प कहा गया है; क्योंकि दिगम्बर जिनधर्म में आचार्य तो नग्न दिगम्बर संत ही होते हैं। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने इस तीसरे अधिकार में सांसारिक दुःख और उसके कारणों की चर्चा करने के उपरान्त मोक्षसुख और उसकी प्राप्ति के उपाय को बताया है। इस तीसरे अधिकार में भी वे अपनी बात को स्पष्ट करने के लिये रोगी और वैद्य के उदाहरण को आगे बढ़ाते हैं। जिसप्रकार वैद्य रोग का निदान करके रोगी की वर्तमान स्थिति को स्पष्ट करते हुये उसे इलाज करने की प्रेरणा देते हैं; उसीप्रकार पण्डित टोडरमलजी यहाँ कर्मबंधन का निदान करके, जीव की दुःखरूप वर्तमान स्थिति का ज्ञान कराकर, उसे दुःखों से छूटने के उपाय करने की प्रेरणा देते हैं। वैद्य रोगी को बताता है कि तुम्हें अमुक बीमारी है, उसके कारण तुम दुःखी हो; तब रोगी कहता है कि मैं तो स्वस्थ हूँ; क्योंकि मेरा वजन चार किलो बढ़ गया है, अब तो मैं मोटा-ताजा हो गया हूँ। उसे समझाते हुये वैद्यजी कहते हैं कि वह मोटापन भी रोग ही है, आरोग्य नहीं। इसीप्रकार जब शिष्य यह बात कहता है कि अब तो मुझे सर्वप्रकार अनुकूलता है, स्त्री-पुत्रादि भी अनुकूल हैं और खाने-पीने की भी कोई कमी नहीं है। तब आचार्यदेव कहते हैं कि हे भाई ! जो अनुकूल संयोग तुझे सुखरूप लगते हैं, वे सभी सुखरूप नहीं, दुःखरूप ही हैं। तीसरा प्रवचन इस जीव की संसार अवस्था में जो दुःख हैं; उन्हें पण्डितजी कर्मोदय की अपेक्षा से, एकेन्द्रियादि पर्यायों की अपेक्षा से और चार गतियों की अपेक्षा से समझाते हैं। दूसरे अधिकार में यह बताया था कि कर्मों के उदय से जीव की कैसी दुर्दशा हो रही है, और अब तीसरे अधिकार में यह समझा रहे हैं कि वह अवस्था पूर्णतः दुःखरूप ही है, सुखरूप नहीं। तात्पर्य यह है कि इस संसार में चारों गतियों में सर्वत्र दुःख ही दुःख है, कहीं भी रंचमात्र भी सुख नहीं है। संसार में सुख खोजना, बालू में से तेल निकालने जैसा असाध्य कार्य है। अतः इस दिशा में किया गया प्रयत्न अकार्यकारी ही है। ___ संसार को दुःखरूप सिद्ध करने के बाद पण्डितजी मोक्ष अवस्था की बात करते हैं। जीव की परमसुखरूप अवस्था का नाम ही मोक्ष है और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकरूपता ही मोक्ष का उपाय है। इसप्रकार इस अधिकार का मूल प्रतिपाद्य सांसारिक दुःख और उन दुःखों के मूलकारणरूप भाव तथा परमसुखरूप मोक्ष अवस्था एवं उसे प्राप्त करने का उपाय बताना है। ___इसी अधिकार को आधार बनाकर पण्डित दौलतरामजी ने छहढाला की पहली ढाल लिखी है; जिसमें चारों गतियों के दुःखों का निरूपण किया गया है। ___ छहढ़ाला में एकेन्द्रियादि पर्यायों और गतियों की अपेक्षा तो दुःखों का निरूपण किया है; पर कर्मों की अपेक्षा की उपेक्षा कर दी है; पर इस मोक्षमार्गप्रकाशक में एकेन्द्रियादि पर्यायों और गतियों की अपेक्षा के साथ-साथ कर्मों की अपेक्षा से भी दुःखों का वर्णन विस्तार से किया गया है। इसप्रकार इस तीसरे अधिकार में २६ पृष्ठों में दुःखों का वर्णन करने के उपरान्त ४ पृष्ठों में मोक्षसुख का वर्णन किया है और अन्त में प्रेरणा दी

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