Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ ५२ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार बैठे हैं। यद्यपि मान कषाय का पोषण हो रहा है, पर भयंकर गर्मी की असह्य आकुलता भी हो रही है। रनों का अंबार लगाता हुआ क्रिकेट का खिलाड़ी बल्लेबाज आनंदित होता हुआ भी पसीने से लथपथ है, उसका गला प्यास से सूखा जा रहा है, शतक बन गया है; पर खेल के मैदान में वह बेहोश हो गया है। वे देश के प्रधानमंत्री बन गये हैं, चारों ओर जय-जय के नारे लग रहे हैं; पर गाँव-गाँव में घूम-घूम कर चुनाव प्रचार करते हुए पस्त हो गये हैं। अब आप ही बताइये कि इसप्रकार के पुण्य के उदयवालों को सुखी कहें या दुःखी ? इसप्रकार हम देखते हैं कि इस प्रकरण में पण्डितजी ने चारों प्रकार की इच्छाओं को समानरूप से दुःखरूप सिद्ध किया है और उन्हें त्यागने की प्रेरणा दी है। अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा है कि इच्छाएँ मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम से होती हैं और स्वयं दुःखरूप हैं; अतः सभी प्रकार की सभी इच्छाएँ सम्पूर्णतः त्याग करने योग्य हैं। इसके बाद मोक्ष सुख और उसकी प्राप्ति का उपाय बताते हुए आचार्य कल्प पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं ह्न “अब जिन जीवों को दुःख से छूटना हो वे इच्छा दूर करने का उपाय करो। तथा इच्छा दूर तब ही होती है; जब मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम का अभाव हो और सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र की प्राप्ति हो । इसलिए इसी कार्य का उद्यम करना योग्य है। ऐसा साधन करने पर जितनी जितनी इच्छा मिटे, उतना उतना दुःख दूर होता जाता है और जब मोह के सर्वथा अभाव से सर्व इच्छा का अभाव हो, तब सर्व दुःख मिटता है, सच्चा सुख प्रगट होता है। तथा ज्ञानावरण-दर्शनावरण और अन्तराय का अभाव हो, तब इच्छा के कारणभूत क्षायोपशमिक ज्ञान दर्शन का तथा शक्तिहीनपने का भी अभाव होता है, अनन्त ज्ञान दर्शन वीर्य की प्राप्ति होती है तथा कितने चौथा प्रवचन ५३ ही काल पश्चात् अघाति कर्मों का भी अभाव हो, तब इच्छा के बाह्य कारणों का भी अभाव होता है; क्योंकि मोह चले जाने के बाद कोई भी कर्म किसी भी काल में कोई इच्छा उत्पन्न करने में समर्थ नहीं थे। मोह के होने पर कारण थे, इसलिए कारण कहे हैं; उनका भी अभाव हुआ, तब जीव सिद्धपद को प्राप्त होते हैं। वहाँ दुःख का तथा दुःख के कारणों का सर्वथा अभाव होने से सदाकाल अनुपम, अखंडित, सर्वोत्कृष्ट आनन्द सहित विराजमान रहते हैं। " इसके उपरान्त वे आठों कर्मों के अभाव में प्रगट होनेवाले अनाकुल भावरूप सुख को विस्तार से स्पष्ट करते हैं, एक-एक कर्म के अभाव में किस-किसप्रकार का अनाकुल भाव (सुख) प्रगट होता है ह्न यह समझाते हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम से देखना-जानना सीमित होता था और मोह के उदय से सभी को एक साथ देखने-जानने की इच्छा रहती थी। अतः आकुलता होती थी। अब सिद्धदशा में ज्ञानावरण-दर्शनावरण के क्षय से सभी पदार्थों को देखने-जानने लगा और मोह के अभाव में देखने-जानने की इच्छा का सम्पूर्णत: अभाव हो गया तथा निराकुल भाव सम्पूर्णतः प्रगट हो गया; अतः परम सुखी हो गया। मोह के उदय से होनेवाले मिथ्यात्वादि कषाय भावों का अभाव होने से मिथ्यात्व और कषायभावों से होनेवाले दुःख का अभाव हो गया। मिथ्यात्व के अभाव से परपदार्थों में होनेवाली इष्ट-अनिष्ट बुद्धि का अभाव हो गया; इसीप्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ कर्म के अभाव से ये भाव भी नहीं रहे। पापरूप अशुभ नामकर्म, नीच गोत्रकर्म, अशुभ आयुकर्म और असाता वेदनीय कर्म तथा पुण्यरूप शुभ नामकर्म, उच्च गोत्रकर्म, शुभ १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-७२

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77