Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 29
________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार उसीप्रकार सद्गुरु संसार के कारणों का विशेषरूप से निरूपण करते हैं; जिससे संसारी जीव मिथ्यात्वादि कुपथ्य का सेवन नहीं करे तो सांसारिक दुःखों से बच सकते हैं। यही कारण है कि यहाँ मिथ्याभावों का विशेष निरूपण आरंभ किया जा रहा है। यहाँ कोई कह सकता है कि आपने तो मोक्ष के मार्ग पर प्रकाश डालने की प्रतिज्ञा की थी; पर यहाँ संसार के कारणों की चर्चा में उलझ कर ही रह गये हैं। आप तो हमें एकमात्र मुक्ति का उपाय बताइये, संसार के कारणों को जानकर हम क्या करेंगे? ___ इसप्रकार के विचार व्यक्त करनेवालों से पण्डितजी कहते हैं कि जिसप्रकार जबतक यह प्राणी वदपरहेजी नहीं छोड़ेगा, कुपथ्य का सेवन करना नहीं छोड़ेगा; तबतक इसे दी गई दवाइयाँ भी कुछ नहीं कर सकतीं। उसीप्रकार जबतक यह जीव मिथ्यात्वादि भावों को नहीं छोड़ेगा; तबतक बाह्य सदाचरण भी कुछ कार्यकारी नहीं होगा। यही कारण है कि मुक्ति का उपाय बताने के पूर्व संसार के कारणों की मीमांसा की जा रही है। जिसप्रकार रोगों के कुछ कारण तो वंशानुगत होते हैं और कुछ वदपरहेजी रूप होते हैं; उसीप्रकार दुःखों के कुछ कारण तो अनादिकालीन होते हैं और कुछ कारण वर्तमान गल्तियों के रूप में पाये जाते हैं। अगृहीत मिथ्यात्वादि तो अनादिकालीन हैं और गृहीत मिथ्यात्वादि वर्तमानकालीन गल्तियों के परिणाम हैं। इस ग्रंथ मोक्षमार्गप्रकाश के आरंभ में ही कर्मबंधनिदान के प्रकरण में कर्मबंधन को अनादि सिद्ध करते हुए आत्मा के साथ ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों का एकक्षेत्रावगाह और मोह-राग-द्वेषरूप भावकर्मों का क्षणिक तादात्मरूप संबंध बताया है। मोह-राग-द्वेष में मोह शब्द दर्शनमोह के अर्थ में लेने से मिथ्यात्व तथा राग-द्वेष शब्द चारित्रमोह के सूचक होने से २५ कषायें ह इसप्रकार मिथ्यात्व और कषायें इस आत्मा में अनादि से चौथा प्रवचन ५७ ही हैं। इसका आशय तो यही हुआ कि इस आत्मा में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र अनादि से ही हैं। गृहीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र तो सैनी पंचेन्द्रियों के ही होने से अनादि से हो नहीं सकते हैं। अत: यह सहज सिद्ध ही है कि अनादि से होनेवाले मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र नियम से अगृहीत ही होने चाहिए। अगृहीत माने अनादिकालीन और गृहीत माने कुदेवादिक के निमित्त से नये ग्रहण किये हुए मिथ्यादर्शनादि। जिसप्रकार सम्यग्दर्शन निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का होता है; उसीप्रकार मिथ्यादर्शन भी अगृहीत और गृहीत के भेद से दो प्रकार का है। जिसप्रकार निसर्गज सम्यग्दर्शन में परोपदेश की मुख्यता नहीं होती; उसीप्रकार अगृहीत मिथ्यादर्शन में भी परोपदेश की आवश्यकता नहीं होती। ___ इसीप्रकार जैसे अधिगमज सम्यग्दर्शन में सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का उपदेश निमित्त होता है; उसीप्रकार गृहीत मिथ्यादर्शन में कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु का उपदेश निमित्त होता है। सम्यग्दर्शन के समान मिथ्यादर्शन को भी निसर्गज (अगृहीत) और अधिगमज (गृहीत) कह सकते हैं। छहढाला में दौलतरामजी ने इसप्रकार का प्रयोग किया भी है, वे लिखते हैं ह्र यों मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत सुनिये सु तेह ।' उक्त पंक्ति में अगृहीत मिथ्यादर्शनादि को निसर्ग शब्द से अभिहित किया गया है। इस चौथे अधिकार में अगृहीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र की चर्चा है और पाँचवें, छठवें और सातवें अधिकार में गृहीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का विवेचन किया जायेगा। पाँचवें अधिकार में जैनेतर गृहीत मिथ्यादृष्टियों की, छठवें अधिकार १. छहढाला : दूसरी ढाल, छन्द-८

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