Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार अधिकार के अन्त में हितकारी सलाह और आशीर्वाद और देते हुये वे लिखते हैं १६ “धर्म के अनेक अंग हैं, उनमें एक ध्यान बिना उससे (जिनागम के स्वाध्याय से ) ऊँचा और कोई धर्म का अंग नहीं है; इसलिये जिस-तिस प्रकार आगम-अभ्यास करना योग्य है। इस ग्रन्थ का तो बाँचना, सुनना, विचारना बहुत सुगम है ह्न कोई व्याकरणादिक का भी साधन नहीं चाहिये; इसलिये अवश्य इसके अभ्यास में प्रवर्ती तुम्हारा कल्याण होगा।” इसप्रकार हम देखते हैं कि पण्डित टोडरमलजी ने वक्ता, श्रोता और सुनने-पढ़ने योग्य शास्त्रों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। इसप्रकार प्रथम अधिकार समाप्त होता है। आत्मा का ध्यान करने के लिए उसे जानना आवश्यक है। इसीप्रकार अपने आत्मा के दर्शन के लिए भी आत्मा का जानना आवश्यक है। इसप्रकार आत्मध्यानरूप चारित्र के लिए तथा आत्मदर्शनरूप सम्यग्दर्शन के लिए आत्मा का जानना जरूरी है तथा आत्मज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान के लिए तो आत्मा का जानना आवश्यक है ही। अन्तत: यही निष्कर्ष निकला कि धर्म की साधना के लिए एकमात्र निज भगवान आत्मा का जानना ही सार्थक है। सुनकर नहीं, पढ़कर नहीं; आत्मा को प्रत्यक्ष अनुभूतिपूर्वक साक्षात् जानना ही आत्मज्ञान है और इसीप्रकार जानते रहना ही आत्मध्यान है। इसप्रकार का आत्मज्ञान सम्यग्ज्ञान है और इसीप्रकार का आत्मध्यान सम्यक्चारित्र है । जब ऐसा आत्मज्ञान और आत्मध्यान होता है तो उसी समय आत्मप्रतीति भी सहज हो जाती है, आत्मा में अपनापन भी सहज आ जाता है, अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन भी उसी समय होता है; सबकुछ एकसाथ ही उत्पन्न होता है और सबका मिलाकर एक नाम आत्मानुभूति है । ह्र आत्मा ही है शरण, पृष्ठ- २२१ दूसरा प्रवचन मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थ पर चर्चा चल रही है। कल के प्रवचन में प्रथम अधिकार की विषयवस्तु पर प्रकाश डालते हुये कहा था कि यह ग्रंथ मोक्ष के मार्ग पर प्रकाश डालनेवाला ग्रन्थ है । अब दूसरे अधिकार को 'अब इस शास्त्र में मोक्षमार्ग का प्रकाश करते हैं', ह्न इस वाक्य से ही आरंभ करते हैं। इससे प्रतीत होता है कि मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थ के नाम की सार्थकता उनके हृदय की अथाह गहराई में अंकित थी । मोक्ष के मार्ग का निर्माण तो तीर्थंकर भी नहीं करते हैं, मार्ग तो स्वयं निर्मित ही है; अतः उसके निर्माण की आवश्यकता भी नहीं है, पर मुक्ति का मार्ग अज्ञानांधकार से आच्छादित है; इसलिए उस पर सम्यग्ज्ञानरूपी प्रकाश डालने की आवश्यकता अवश्य है। यही कारण है कि यहाँ मुक्ति के मार्ग पर प्रकाश डाला जा रहा है। दूसरे अधिकार के आरंभ में ही वे इस बात पर जोर देते हैं कि वही उपदेश सार्थक हैं, जो मोक्ष के मार्ग पर प्रकाश डाले । तीर्थंकर भगवान भी ऐसा ही उपदेश देते हैं। समवसरण में बैठकर वे दुनियादारी की बातें नहीं सिखाते । सास-बहु को प्रेम से रहना चाहिए ह्र ऐसी बातें करके वे राग करने का उपदेश नहीं देते। वे तो मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्र का अभाव कैसे हो, सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र की प्राप्ति कैसे हो; ह्न यह समझाते हैं। पण्डित टोडरमलजी मनोविज्ञान के बहुत बड़े ज्ञाता थे । उन्होंने मोक्ष के मार्ग पर प्रकाश डालने के लिए परंपरागत रास्ते को नहीं अपनाया । महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र के 'सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः ' इस प्रथम सूत्र में ही आचार्य उमास्वामी ने मोक्षमार्ग की चर्चा आरम्भ कर दी और संसार के दुःखों का वर्णन तीसरे अध्याय में किया; परन्तु पण्डित टोडरमलजी मोक्षमार्ग का प्रकरण नौवें अधिकार से प्रारंभ करते हैं और संसार के दुःखों की चर्चा ग्रन्थ के आरंभ में ही करते हैं।

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