Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 11
________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार २० कथित वीतराग-विज्ञान को अधिकतम लोगों के पास पहुँचाना चाहते थे । यदि तुम्हारे चित्त में यह विकल्प रहा कि यह ग्रंथ तो पण्डित का लिखा है, हिन्दी भाषा में है तो तुम इस ग्रंथ से लाभ नहीं उठा सकते; इसलिए इसप्रकार के विकल्पों को छोड़कर तुम इस ग्रंथ का सूक्ष्मता से अध्ययन करो । एक बात यह भी तो है कि यदि तुम प्राकृत संस्कृत नहीं जानते हो तो फिर तुम्हें प्राकृत- संस्कृत के ग्रन्थों का स्वाध्याय करने के लिए किसी न किसी पण्डित का ही सहारा लेना पड़ेगा, उसके द्वारा किये गये अनुवाद का ही सहारा लेना होगा। यदि स्वयं के स्वाध्याय से कोई बात स्पष्ट नहीं होती तो भी उसे किसी विद्वान से समझना होगा; क्योंकि आचार्यों की उपलब्धि तो सर्वत्र सदा संभव नहीं है। अतः व्यर्थ के विकल्पों से विराम लेकर इस अत्यन्त उपयोगी ग्रंथराज का श्रद्धा के साथ स्वाध्याय करो, तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा । चिकित्सा आरंभ करने के पूर्व बीमारी का निदान करना आवश्यक होता है। निदान के बिना लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है। यही कारण है कि इस मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र में सर्वप्रथम कर्मबंधन का निदान करते हैं। उक्त संदर्भ में वे द्रव्य कर्मों का बंधन और मोह-राग-द्वेष रूप भावकर्मों का अनादिपना सिद्ध करते हैं। तात्पर्य यह है कि मोह-राग-द्वेष की बीमारी इस जीव को अनादि से है, कर्मबंधन भी अनादि से ही है। इसकारण सांसारिक सुख-दुःख भी अनादि से ही हैं। सांसारिक सुख भी दुःख ही है; अतः यह जीव अनादि से ही इस मोह-राग-द्वेष बीमारी के कारण दुःख भोग रहा है। सोने का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि जिसप्रकार सोना खदान में अनादि से अशुद्ध पड़ा है; उसीप्रकार यह आत्मा भी निगोद में अनादि से अशुद्ध पड़ा रहा। इसप्रकार उन्होंने यहाँ कर्मरोग का अनादिपना सिद्ध किया है। यद्यपि यह बात सत्य है कि किसी महिला को देखकर किसी को दूसरा प्रवचन २१ विकार उत्पन्न हो सकता है, पर प्रत्येक व्यक्ति को नहीं होता; अपितु उन्हीं को होता है, जिनके हृदय में पहले से ही विकार विद्यमान है, उन्हें नहीं जिनका चित्त विकार से रहित है। तात्पर्य यह है कि विकार तो अपनी पर्यायगत योग्यता के कारण स्वयं से होता है; कर्मोदय या बाह्य पदार्थ तो निमित्तमात्र है। प्रश्न : मोह-राग-द्वेष से कर्मबंधन और कर्मोदय से मोह-राग-द्वेष का होना इसमें तो इतरेतराश्रय दोष है; क्योंकि द्रव्यकर्मों से भावकर्म और भावकर्मों से द्रव्यकर्म ह्र इसप्रकार परस्पर एक दूसरे के आश्रय से होने को ही तो इतरेतराश्रय दोष कहते हैं ? उत्तर : नहीं, इसमें इतरेतराश्रय दोष नहीं है; क्योंकि जिन द्रव्यकर्मों के उदय से जो भावकर्म होते हैं, उन द्रव्यकर्मों से वे द्रव्यकर्म भिन्न हैं, जो इन भावकर्मों से बंधनेवाले हैं। प्रश्न : यह तो समस्या को पीछे धकेलना हुआ, समस्या का समाधान नहीं? क्योंकि जो मोह-राग-द्वेषरूप भावकर्म अभी हैं, उनका निमित्त पुराने द्रव्यकर्मों का उदय है और वे पुराने द्रव्यकर्म उनसे भी पुराने मोहराग-द्वेषरूप भावकर्मों के निमित्त से बंधे थे। इसप्रकार तो कभी अंत ही नहीं आवेगा । आखिर कहाँ तक जायेंगे पीछे-पीछे ? उत्तर : अनादि काल तक । प्रश्न : पहले कौन था ? द्रव्यकर्मों का बंधन या मोह-राग-द्वेषरूप भावकर्म ? उत्तर : इसका उत्तर तो यही है कि दोनों ही अनादि से हैं। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक जीव अनादिकाल से ही द्रव्यकर्मों के उदयपूर्वक भावकर्मरूप परिणमित हो रहा है। इसप्रकार यह सुनिश्चित है कि द्रव्यकर्म और भावकर्म की परम्परा अनादि से हैं। गोम्मटसार में एक गाथा आती है, जिसमें कहा गया है कि ह्न 'जोगा पयडि पदेसा ठिदि अणुभागा कसायदो होंति । '

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