Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 5
________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार जो मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र अनादि से ही हैं, समझपूर्वक ग्रहण नहीं किये; वे अगृहीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र हैं और जो सैनी पंचेन्द्रिय होने के बाद मनुष्यगति में कुदेव कुगुरु-कुशास्त्र के निमित्त से बुद्धिपूर्वक नये ग्रहण किये गये हैं; वे गृहीत मिथ्यादर्शन, गृहीत मिथ्याज्ञान और गृहीत मिथ्याचारित्र हैं । मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का गृहीत और अगृहीत के रूप में किया गया वर्गीकरण जैसा मोक्षमार्गप्रकाशक में उपलब्ध होता है, वैसा उसके पूर्व में दिखाई नहीं देता । पण्डित टोडरमलजी के उत्तरकालीन विद्वानों ने इस सन्दर्भ में उनका अनुकरण किया है। पण्डित दौलतरामजी कृत छहढाला की दूसरी ढ़ाल मोक्षमार्गप्रकाशक के प्रतिपादन का ही संक्षिप्त रूपान्तरण है। पहला अधिकार पीठबंध है, जिसमें मंगलाचरणोपरान्त पंचपरमेष्ठी का स्वरूप, मंगलाचरण का हेतु, ग्रन्थ की प्रामाणिकता, स्वयं की स्थिति, वक्ता, श्रोता व पढ़ने योग्य शास्त्रों का स्वरूप आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। दूसरे अधिकार में कर्मोदय के निमित्तपूर्वक अनादिकाल से इस जीव की दशा कैसी हो रही है और तीसरे अधिकार में पंचेन्द्रिय विषयों की पराधीनता से इसने कैसे-कैसे दुःख उठाये हैं ह्न यह बताने के उपरान्त सच्चे सुख का स्वरूप समझाया गया है। चौथे अधिकार में अगृहीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का स्वरूप समझाया गया है और पाँचवें से सातवें अधिकार तक गृहीत मिथ्यादर्शन, गृहीत मिथ्याज्ञान और गृहीत मिथ्याचारित्र का निरूपण है। गृहीत मिथ्यात्व के सन्दर्भ में पाँचवे अधिकार में जैनेतर मत की समीक्षा, छठवें अधिकार में व्यंतरादि देवी - दहाड़ी आदि के पूज्यत्व की समीक्षा और सातवें अधिकार में निश्चयाभासी, व्यवहाराभासी, उभयाभासी और सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टियों की समीक्षा की गई है। पहला प्रवचन इसके बाद आठवें अधिकार में उपदेश के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । सम्पूर्ण जिनागम चार भागों में विभक्त किया गया है ह्र प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग । वस्तुस्वरूप के प्रतिपादन के लिये प्रत्येक अनुयोग की अपनी अलग शैली है। शैली को समझे बिना वस्तुस्वरूप समझना संभव नहीं है; इसलिये इस अधिकार में चारों अनुयोगों की शैलियों को विस्तार से समझाया गया। नौवें अधिकार में सम्यग्दर्शन का स्वरूप समझाना आरंभ ही किया था कि वे षड्यंत्र के शिकार हो गये और हम सबके दुर्भाग्य से वह नौवाँ अधिकार भी अधूरा ही रह गया। ग्रंथ का आरंभ निम्नलिखित मंगलाचरण से करते हैं ( मंगलाचरण ) मंगलमय मंगलकरण, वीतराग-विज्ञान । नमीं ताहि जातैं भये, अरहंतादि महान ।। १ ।। करि मंगल करिहौं महा, ग्रंथकरन को काज । जातैं मिलै समाज सब, पावै निजपद राज || २ || मैं मंगलस्वरूप और मंगल करनेवाले उस वीतराग - विज्ञान को नमस्कार करता हूँ, जिसके आश्रय से अरहंतादि पंचपरमेष्ठी महान बने हैं। मंगलाचरण करने के उपरान्त अब मैं इस मोक्षमार्गप्रकाशक नामक महाग्रंथ की रचना करने का काम आरंभ करता हूँ, इसके फलस्वरूप मुझे अनन्तगुणों का अपना समाज और निजपद का राज प्राप्त होगा। देखो, पण्डितजी किसी भी प्रकार की लौकिक कामना न करते हुये निजगुणरूपी समाज और निजपदरूपी राज की भावना भाते हैं। मंगलाचरणोपरान्त ग्रंथ करने संबंधी प्रतिज्ञा वाक्य में वे अपने इस ग्रंथ को महाग्रंथ कहते हैं, जिससे समझा जा सकता है कि उनके चित्त में साधारण ग्रन्थ नहीं, अपितु एक महान ग्रंथ लिखने का संकल्प था । पंचाध्यायीकार ने भी अपने ग्रंथ को ग्रन्थराज कहा है और उसका

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