Book Title: Moksh Marg Prakashak ka Sar
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 3
________________ १ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार प्रवृत्तियाँ तो सदा और सर्वत्र एक-सी ही होती हैं; इसलिए उनके सन्दर्भ में मार्गदर्शन करने के लिये महापंडित टोडरमलजी जैसे ज्ञानीजनों की आवश्यकता भी सदा और सर्वत्र रहती ही है। ___मुक्तिमार्ग पर प्रकाश डालनेवाले इस मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्र की रचना उस समय की जैननगरी जयपुर में विक्रम संवत् १८१८ से १८२४ के मध्य हुई थी। ___मार्ग तो हमेशा खुला ही रहता है; परन्तु दिन में सूर्य के प्रकाश में उस पर आवागमन होने लगता है और रात्रि में घने अंधकार के कारण आवागमन अवरुद्ध-सा हो जाता है। समुचित प्रकाश की व्यवस्था होने पर थोड़ा-बहुत आवागमन चलता भी रहता है। सर्वज्ञ भगवानरूपी सूर्य का अस्त तो हो ही गया है; अतः अब सन्तों, आचार्य भगवन्तों और ज्ञानी धर्मात्माओं द्वारा लिखित ग्रंथ (शास्त्र) रूपी दीपक ही उस पर प्रकाश डालते हैं। यह मोक्षमार्गप्रकाशक भी एक ऐसा ही दीपक (ग्रंथ) है कि जो इस कलिकाल में मुक्ति के मार्ग पर प्रकाश डाल रहा है और आगे भी डालता रहेगा। पण्डित टोडरमलजी ने ग्रंथ के आरंभ में ही इस बात को सयुक्ति प्रस्तुत किया है; इस ग्रन्थ के मोक्षमार्गप्रकाशकपने को सिद्ध किया है; इसकी आवश्यकता और उपयोगिता पर प्रकाश डाला है; जो मूलतः पठनीय है। मोक्षमार्गप्रकाशक अर्थात् मुक्ति के मार्ग पर प्रकाश डालनेवाला ग्रन्थ, दुःखों से मुक्त होने का उपाय बतानेवाला ग्रन्थ। जिसप्रकार हम दीपक से दीपक जलाते हैं; इसप्रकार हजारों दीपक जलने लगते हैं; पर वे अन्धकार का नाश सूर्य के समान पूरी तरह तो कर नहीं पाते; फिर भी मार्ग पूरी तरह अवरुद्ध नहीं होता, जगत का काम चलता ही रहता है। उसीप्रकार केवलज्ञानियों के अभाव में श्रुतकेवलियों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। श्रुतकेवलियों के बाद आचार्य भूतबली, पुष्पदन्त और कुन्दकुन्दाचार्य जैसे आचार्यों ने महाग्रंथों रूपी बड़े-बड़े पहला प्रवचन दीपक जलाये; उसके बाद भी आचार्यों, सन्तों और ज्ञानी गृहस्थों ने इस परम्परा को कायम रखा। इसप्रकारदीपकों से दीपक जलने की परम्परा आज तक चली आ रही है। यद्यपि केवलज्ञानरूपी सूर्य जैसा प्रकाश तो नहीं रहा; पर घना अंधकार भी नहीं हो पाया और आज भी उन दीपकों के माध्यम से मुक्ति का मार्ग चल रहा है और चलता रहेगा। यह मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र भी एक ऐसा ही दीपक है कि जिसके प्रकाश में आज भी अनेकानेक लोग मुक्ति के मार्ग पर चलने का सफल प्रयास कर रहे हैं और युगों-युगों तक करते रहेंगे। इसके आरंभ में ही पण्डितजी कहते हैं कि इस ग्रन्थ में जो कुछ भी मैं लिख रहा हूँ, उसमें मेरा कुछ भी नहीं है, सबकुछ भगवान महावीर की दिव्यध्वनि में समागत वस्तुस्वरूप ही है; जो जबसे अभीतक निर्बाध परम्परा से चला आ रहा है, और मेरे महाभाग्य से मुझे भी प्राप्त हो गया है। वे मोक्षमार्गप्रकाशक के पृष्ठ ११ पर स्वयं लिखते हैं ह्र ___ "हमने इस काल में यहाँ अब मनुष्यपर्याय प्राप्त की। इसमें हमारे पूर्व संस्कार से व भले होनहार से जैनशास्त्रों के अभ्यास करने का उद्यम हुआ; जिससे व्याकरण, न्याय, गणित आदि उपयोगी ग्रन्थों का किंचित् अभ्यास करके टीकासहित समयसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, गोम्मटसार, लब्धिसार, त्रिलोकसार, तत्त्वार्थसूत्र इत्यादि शास्त्र और क्षपणासार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, अष्टपाहुड़, आत्मानुशासन आदि शास्त्र और श्रावक-मुनि के आचार के प्ररूपक अनेक शास्त्र और सुष्ठुकथासहित पुराणादि शास्त्र ह्र इत्यादि अनेक शास्त्र हैं, उनमें हमारे बुद्धि अनुसार अभ्यास वर्तता है; उससे हमें भी किंचित् सत्यार्थपदों का ज्ञान हुआ है। इस निकृष्ट समय में हम जैसे मंदबुद्धियों से भी हीन बुद्धि के धनी बहुत जन दिखायी देते हैं। उन्हें उन पदों का अर्थज्ञान हो, इस हेतु धर्मानुरागवश देशभाषामय ग्रन्थ रचने की हमें इच्छा हुई है, इसलिये हम यह ग्रन्थ बना

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