Book Title: Mantung Bharti
Author(s): Dhyansagar
Publisher: Sunil Jain

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Page 11
________________ (viii) (ix) 2. यः संस्तुवे गुणभृतां सुमनो विभाति, यः तस्करा विलयतां विबुधाः स्तुवन्ति। आनंदकन्द हृदयाम्बुजकोशदेशे, भव्या व्रजन्ति किल याऽमरदेवताभिः॥1॥ इत्थं जिनेश्वर सुकीर्तयां जिनोति, न्यायेन राजसुखवस्तुगुणा स्तुवन्ति । प्रारम्भभार भवतो अपरापरां या, सा साक्षणी शुभवशो प्रणमामि भक्त्या॥2॥ नानाविधं प्रभुगुणं गुणरत्न गुण्या, रामा रमंति सुरसुन्दर सौम्यमूर्तिः। धमार्थकाम मनुयो गिरिहमरत्नाः, उध्यापदो प्रभुगुणं विभवं भवन्तु।।3।। कर्णो स्तुवेन नभवानभवत्यधीशः, यस्य स्वयं सुरगुरु प्रणतोसि भक्त्या। शर्मा/नोक यशसा मुनिपारंगा, मायागतो जिनपति: प्रथमो जिनेशः।।4।। "पर ये सभी मूलग्रन्थकारकृत नहीं हैं, क्योंकि भक्तामर स्तोत्र के पठन का फल बताकर स्तोत्र को वहीं समाप्त कर दिया है। अत: ये अतिरिक्त श्लोक किसी ने बाद में बनाये है, इनकी रचना भी ठीक नहीं है और अर्थ भी सुसंगत नहीं है।" इनके सिवा भी एक गुटके में 4 श्लोक और पाये जाते हैं, जिन्हें बीजक-काव्य लिखा है। इनकी भी स्थिति उपरोक्त ही है तथा कुछ छन्दोभंग की विसंगति दृष्टिगोचर होती है। वे भी मूलस्तोत्रकारकृत नहीं हैं। वे चार पद्य इस प्रकार हैं3. ओं आदिनाथ अर्हन्सुकुलेवतंसः, श्रीनाभिराज निजवंश शशिप्रतापः। इक्ष्वाकुवंश रिपुमर्दन श्रीविभोगी, शाखा कलापकलितो शिव शुद्धमार्गः॥1॥ कष्ट प्रणाश दुरिताप समांवनाहि अंभोनिधी दुखय तारक विघ्नहर्ता। दुःखाविनारि भय भग्नति लोह कष्ट तालोर्द्धघाट भयभीत समुत्कलापाः ।।2।। श्रीमानतुंग गुरुणा कृत बीज मंत्रः, यात्रा स्तुतिः किरण पूज्य सुपादपीठः। भक्तिभरो हृदयपूर विशाल गात्रा कौ धौ दिवाकर समां वनिता जनाह्रीं ॥3॥ त्वं विश्वनाथ पुरुषोत्तम वीतरागः त्वं जैन राज कथिता शिवशुद्धमार्गा। त्वौच्चाट भंजनवपुः खल दुःखटालान् त्वं मुक्तिरूप सुदया पर धर्मपालान्।।4।। "विष्वग्विभोः सुमनसः किल वर्षयन्ति । ____दिग्बन्धनाः सुमनसः किमु ते वदन्ति॥ त्वत्सङ्गताविहस्रतां जगती समस्ता स्त्यामोदिनी विहसतामुदयेन धानः ।। 1 ।। द्वेधापि दुस्तरतमः श्रमविप्रणाशा त्साक्षात्सहस्रकरमण्डलसम्भ्रमेण। वीक्ष्य प्रभोर्वपुषि कञ्चनकाञ्चना* प्रोद्बोधनं भवति कस्य न मानसाब्जम्।।2।। दिव्यो ध्वनिर्ध्वनितदिग्वलयस्तवाहन। व्याख्यातुरुत्सुकयतेऽत्र शिवाध्यनीयाम्। तत्त्वार्थदेशनविधौ ननु सर्वजन्तुं, भाषाविशेषमधुरः सुरसार्थपेयः।।3॥ विश्वैकजैत्रभटमोहमहामहेन्द्र। सद्यो जिगाय भगवान् निगदन्निवेत्थम्। सन्तर्जयन् युगपदेव भयानि पुंसां मन्द्रध्वनिनंदति दुन्दुभिरुच्चकैस्ते॥॥" पुणे स्थित भंडारकर प्राच्य-विद्या शोध-संस्थान में संरक्षित एक प्रति में “मानतुंगीय काव्य चतुष्टयी" के नाम से वही चार पद्य हैं। भक्तामर के जर्मन-भाषानुवादक, जिन्हें संभवतः 44 काव्यों वाली प्रति ही उपलब्ध हुई थी, का अनुमान है कि काव्य क्र. 39 और 43 (दिगम्बर पाठ में 43 और 47) प्रक्षिप्त है, अत: मूल में केवल 42 काव्य ही हैं। यहाँ प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वास्तव में पद्यों की संख्या कितनी है? विचार करने पर 44 पद्यों वाली मान्यता एक प्रश्न उपस्थित करती है कि क्या श्वेताम्बर मत अरहंत परमेष्ठी के 4 प्रातिहार्य ही स्वीकार करता है, जिससे स्तोत्रकार ने शेष 4 का उल्लेख छोड़ दिया? यह सर्वविदित है कि दोनों संप्रदायों में प्रातिहार्य-संबंधी कोई मतभेद नहीं है। फिर यदि भक्तामर में केवल 4 प्रतिहार्यों को ही लिया जाये, तो क्या यह गुण-संपन्न स्तोत्र अधूरा नहीं कहलायेगा? यदि किसी कारण-वश कल्याण मन्दिर स्तोत्र की पद्य-संख्या से साम्य स्थापित करने के लिये 44 संख्या का समर्थन किया जाये, तो प्रश्न और उभर कर सामने आता है कि पद्य क्रमांक 1926, में अष्ट-प्रातिहार्यों का वर्णन कल्याण -मन्दिर में तो स्वीकृत है, फिर भक्तामर में आपत्ति क्यों है? तथा, इन काव्यों में साम्प्रदायिकता की कोई झलक भी नहीं मिलती जिसके आधार पर इन्हें विवादास्पद ठहराया जा सके।

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