Book Title: Mantung Bharti
Author(s): Dhyansagar
Publisher: Sunil Jain
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आपका कीर्तन प्रचंड अग्नि के लिये जल-स्वरूप है।
सर्प का उपद्रव भक्त को हानि नहीं पहुँचाता।
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पं, दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिङ्गम्।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं, त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम्।।40॥
अन्वयार्थ (त्वन्नाम-कीर्तन-जलं) आपका नाम-कीर्तनरूपी जल, (कल्पान्त-कालपवनोद्धत-वहि-कल्पं) प्रलय-कालीन पवन से भड़की हुई अग्नि के समान, (ज्वलितं) ज्वालाओं से युक्त, (उज्ज्वलं) उज्ज्वल, (उत्स्फुलिङ्ग) चिनगारी उचटाने वाली और (विश्वं जिघत्सं इव)सबको खाने की इच्छुक-सी (सम्मुखं आपतन्तं) आगे बढ़ती हुई (दावानलं) वन की अग्नि को (अशेष) पूर्णत: (शमयति) बुझा देता है।
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलं,
क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम्।
आक्रामति क्रम-युगेण' निरस्त-शङ्कस्त्वन्नाम-नाग-दमनी हृदि यस्य पुंसः। 41॥
अन्वयार्थ (यस्य पुंसः हदि) जिस पुरुष के हृदय में (त्वन्नाम-नाग-दमनी) आपका नामरूपी नाग-दमनी अर्थात् गरुड़-रत्न है, (निरस्त-शङ्कः) वह निर्भीक भक्त (आपतन्तं) सामने आते हुये (रक्तक्षणं) लाल आँखों वाले, (समद-कोकिलकण्ठ-नील) मतवाली कोयल के कण्ठ-सम काले, (क्रोधोद्धतं) क्रोध से भड़के हुए और (उत्फणं) उठे हुए फना वाले (फणिन) नाग को (क्रम-युगेण) दोनों पैरों से (आक्रामति) लांघ जाता है।
पद्यानुवाद प्रलय-काल की अग्नि सरीखी ज्वालाओं वाली विकराल, उचट रही जो चिनगारी बन, काल सरीखी जिसकी चाल। सबके भक्षण की इच्छुक-सी आगे बढ़ती वन की आग, मात्र आपके नाम-नीर से वह पूरी बुझती नीराग!।
पद्यानुवाद कोकिल-कण्ठ सरीखा काला लाल-नेत्र वाला विकराल, फणा उठाकर गुस्से में जो चलता टेढ़ी-मेढ़ी चाल।
आगे बढ़ते उस विषधर को वह करता पैरों से पार, अहो! बेधड़क जिसके हिय तव नाम-नाग-दमनी विषहार।।
अन्तर्ध्वनि हे भवाग्नि-निवारक जिन ! प्रलयाग्नि-तुल्य धधकती और उचटती चिनगारियों वाली तथा समूचे विश्व को निगल जाने की इच्छुक-सी आगे बढ़ती हुई भीषण जंगल की आग आपके अग्नि-शामक नाम का कीर्तन (बारम्बार नामोच्चारण) करते ही पूर्णतः शान्त हो जाती है। आपका शुभ नाम अद्भुत जल-तुल्य है, जो काम-क्रोध रूपी अग्नि को भी शांत करने में सक्षम है।
अन्तर्ध्वनि हे नाथ ! आपका नाम ही सर्प को वश में करनेवाली गरुड़ मणि है। उसे हदय में धारण करनेवाला भक्त साँप से नहीं घबड़ाता। यदि लाल आँखों वाला भीषण कृष्ण-नाग भी रुष्ट होकर फन फैलाकर सम्मुख आ रहा हो, तो वह निडर मनुष्य यमराज के उस विश्वस्त प्रतिनिधि को अपने पैरों से लांघ जाता है । सर्प उसे नहीं डसता। आपका भक्त सांसारिक अड़चनों को भी निर्भीकतापूर्वक पार कर जाता है। विषयभोगरूपी विषैले विषधर उसे डसकर दुर्गति में नहीं पहुंचा सकते।
1. क्रम-युगेन 2. नाग-दमनो

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