Book Title: Mantung Bharti
Author(s): Dhyansagar
Publisher: Sunil Jain

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Page 46
________________ 62 नमिऊण-स्तोत्रम् नमिऊण-स्तोत्रम् -(मूल)अडवीसु भिल्ल-तक्कर-पुलिंद-सद्दूल-सद्द-भीमासु। भय-विहुर-वुन्न-कायर-उल्लूरिय-पहिय-सत्थासु ॥10॥ अविलुत्त-विहव-सारा तुह नाह ! पणाममत्त-वावारा। ववगय-विग्घा सिग्घं पत्ता हिय-इच्छियं ठाणं॥11॥ -(मूल)पज्जलिआणल-नयणं दूर-वियारिअ-मुहं महाकायं। नह-कुलिस-घाय-विअलिअ-गइंद-कुंभत्थलाभोअं12॥ पणय-ससंभम-पत्थिव-नह-मणि-माणिक-पडिअ-पडिमस्स। तुह वयण-पहरण-धरा सीहं कुद्धपि न गणंति ॥ 13 ॥ (भिाल-तकर-पुलिंद-सहूल-सह-भीमासु) भील, तस्कर एवं असभ्य व क्रूर 'पुलिन्द' नामक वन्य-जाति के मनुष्यों के कारण और तेंदुए की ध्वनियों से जो भयंकर हैं तथा (भय-विहुर-वुन्न-कायर-उल्टरिय-पहिय-सत्थास) भय से विह्वल, मुँह लटकाए, कातर और लुटे हुए पथिकों का समूह जहाँ विद्यमान है ऐसी (अडवीसु) अटवियों अर्थात् वनों |में, (नाह) हे नाथ! (तह) आपके लिये (पणाममत्त-वावारा) केवल प्रणाम करने |वाले मनुष्य (अविलुत्त-विहव-सारा) नहीं लटा है वैभवरूपी सार जिनका और (ववगयविग्धा) बीत चुके हैं विघ्न जिनके, ऐसे हो (सिग्धं) शीघ्र ही (हिय-इच्छियं) हृदय को प्रिय लगने वाले (ठाणं) स्थान को (पत्ता) प्राप्त हो गये। (पणय-ससंभम-पत्थिव-नह-मणि-माणिक-पडिअ-पडिमस्स )जिनके नखरूपी मणिमाणिक्यों पर विनत एवं संभ्रम अर्थात् आदर युक्त भय पूर्वक राजाओं के शरीर साष्टाङ्ग पतित हैं, ऐसे (तह) आपके (वयण-पहरण-धरा) वचनरूपी आयुध के धारक मनुष्य (पज्जलिआणल-नवर्ण) प्रज्वलित अग्नि-तुल्य नेत्रों वाले, (महाकाय) विशाल-काय, (नह-कुलिस-घाय-विअलिअ-गईद-कुंभत्थलाभो) नखरूपी वा के प्रहार द्वारा गजराज के कुम्भस्थलरूपी मैदान का विभाजन करने वाले एवं (कद्धपि) क्रोध को भी प्राप्त हुए (सीहं) सिंह को (न) नहीं (गणंति ) गिनते ! - (पद्यानुवाद)भील पुलिंद तेंदुए तस्कर, जहाँ बस रहे भयकारी, जहाँ लुटे भयभीत पथिक-जन, हैं उदास कातर भारी। उन्हीं वनों में तुम्हें नमन कर, भक्त सुरक्षित हो जाते, अपने वैभव सहित अबाधित, वे अपने घर को आते। - (पद्यानुवाद) नैन धधकते अंगारों से, मुख-विकराल, शरीर बड़ा, वज्रघात-सम नख-प्रहार से, गज-मस्तक जो फाड़ खड़ा। कुपित-सिंह वह नगण्य लगता, उन्हें जिन्हें श्री जिनवाणी, मिली प्रभो ! जिन-नख-मणियों में, नत-मस्तक राजा ज्ञानी।

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