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नमिऊण-स्तोत्रम्
(मूल)
रोग-जल-जलण-विसहर-चोरारि-मइंद-गय-रण-भयाइं। पास-जिण-नाम-संकित्तणेण पसमंति सव्वाई 8 ॥
(सव्वाई रोग-जल-जलण-विसहर-चोरारि-मइंद-गय-रण-भयाई) रोग, जल, अग्नि, सर्प, चोर-शत्रु, सिंह, हाथी और रण-संबन्धी सभी भय (पास-जिण-नाम-संकित्तणेण) पार्श्व-जिन के नाम-संकीर्तन द्वारा (पसमंति) शान्त हो जाते हैं।
नमिऊण-स्तोत्रम्
-(मूल)एवं महाभय-हरं पास-जिणिंदस्स संथवमुआरं। भविअ-जणाणंदयरं कल्लाण-परंपर-निहाणं। 19॥ राय-भय-जक्ख-रक्खस-कुसुमिण-दुस्सउण-रिक्ख-पीडासु।
संझासु दोसु पंथे उवसग्गे तह य रयणीसु ॥ 20 ।। जो पढइ जो अ निसुणइ ताणं कइणो य माणतुंगस्स।
पासो पावं पसमेउ सयल-भुवणच्चियाचलणो॥21॥ (एवं) इसी प्रकार (राय-भय-जक्ख-रक्खस-कुसुमिण-दुस्सउण-रिक्ख-पीडास) | राज-भय, यक्ष-राक्षस, दुःस्वप्र, अपशकुन तथा नक्षत्र-संबन्धी पीड़ाओं के होने पर, (पंथे) यात्रादि के समय मार्ग में (तह) तथा ( उवसग्गे) उपसर्ग आने पर (जो) जो (पास-जिणिंदस्स) पार्थ-जिनेन्द्र के (महाभय-हरं) महा भयहारी, (भविअजणाणदयर) भव्य-जनों के लिये आनन्दकारी और (कलण-परंपर-निहाणं) कल्याणपरम्परा के भंडार-स्वरूप (उआर-संथवं) उत्तम स्तवन को (दोसु-संझासु) दोनों सन्ध्याओं में (य) और (रयणीसु) रात्रियों में (पढइ) पढ़ता है (अ) और (जो निसुण्ड) जो सुनता है, (ताणं) उसका (य) और (कड़णो माणतुंगस्स) कविमानतुङ्ग का (पावं) पाप, (सयल-भुवणच्चियाचलणो) सारे जगत् में पूजित आचरण | वाले (पासो) भगवान् पार्श्वनाथ तीर्थंकर (पसमेठ) शांत करें।
- (पद्यानुवाद)इसी तरह यदि अष्ट-कष्ट-सम, शासक भी संकटमय हो, यक्ष और राक्षस का भय हो, ग्रह-नक्षत्रों का भय हो। बुरे स्वप्न, अपशकुन हुए हों, या उपसर्ग भयंकर हो, यात्रा के भी समय मार्ग में, ऐसा कोई भी डर हो। तब संध्या या उषा-निशा को, पढ़े-सुने जो भयहारी, पार्श्व-जिनेश्वर की उत्तम स्तुति, भव्यों को अति सुखकारी।
कल्याणों की परम्परा निधि, उनका सारा पाप हरें, जग-पूजित संयमधारी प्रभु, मानतुंग पर कृपा करें।
- (पद्यानुवाद)सर्व-व्याधियाँ,जल-यात्रा-भय, अग्नि-सर्प संकट भारी, चोरों का भय, वैरी का भय, सिंह-हस्ति-भय, रण-मारी।
पार्श्व-नाम के संकीर्तन से, संकट सभी शांत होते, नहीं भक्त सिर पकड़-पकड़ कर, विपदा आने पर रोते।