________________
(3)
ॐ नमः सिद्धेभ्यः
भक्तामर स्तोत्र: हिन्दी पद्य भावानुवाद
पद्यानुवादक- पू.क्षु. श्री ध्यानसागर जी महाराज (तर्ज- कमलकुमार कृत भक्तामर भक्त अमर नत-मुकुट सुमणियों की') भक्त-सुरों के नत मुकुटों की, मणि-किरणों का किया विकास, अतिशय विस्तृत पाप-तिमिर का किया जिन्होंने पूर्ण विनाश । युगारंभ में भव-सागर में डूब रहे जन के आधार, श्री-जिन के उन श्री-चरणों में वंदन करके भली प्रकार ॥1॥ सकल-शास्त्र का मर्म समझ कर सुरपति हुए निपुण मतिमान्, गुण-नायक के गुण-गायक हो, किया जिन्होंने प्रभु-गुण-गान । त्रि-जग-मनोहर थीं वे स्तुतियाँ, थीं वे उत्तम भक्ति-प्रधान, अब मैं भी करने वाला हूँ, उन्हीं प्रथम-जिन का गुण-गान ।।2।। ओ सुर-पूजित-चरण-पीठ-धर प्रभुवर ! मैं हूँ बुद्धि-विहीन, स्तुति करने चल पड़ा आपकी हूँ निर्लज्ज न तनिक प्रवीण। जल में प्रतिबिम्बित चन्दा को बालक सचमुच चन्दा जान, सहसा हाथ बढ़ाता आगे, ना दूजा कोई मतिमान् ।।3।। हे गुणसागर! शशि-सम सुन्दर तव शुचि गुण-गण का गुण-गान, कोई कर न सके चाहे वह सुर-गुरु सा भी हो मतिमान् । प्रलय-पवन से जहाँ कुपित हो घड़ियालों का झुंड महान्, उस सागर को कैसे कोई भुज-बल से तैरे बलवान् ।।4।। तो भी स्वामी ! वह मैं हैं जो तव स्तुति करने को तैयार, मुझ में कोई शक्ति नहीं पर भक्ति-भाव का है संचार। निज-बल को जाँचे बिन हिरणी निज शिशु की रक्षा के काज, प्रबल स्नेह-वश डट जाती है आगे चाहे हो मृगराज 11511
71
मन्द-बुद्धि हूँ, विद्वानों का हास्य-पात्र भी हूँ मैं नाथ ! तो भी केवल भक्ति आपकी मुखर कर रही मुझे बलात् । गाना ऋतु वसंत में कोकिल कूके मधुर-मधुर होती आवाज, आम्र वृक्ष पर बौरों के प्रिय गुच्छों में है उसका राज ।।6।। निशा-काल का अलि-सम काला जग में फैला तिमिर महान्, प्रातः ज्यों रवि किरणों द्वारा शीघ्रतया करता प्रस्थान । जन्म-शृंखला से जीवों ने बाँधा है जो भीषण पाप, क्षण भर में तव उत्तम स्तुति से कट जाता वह अपने आप ॥7॥ इसीलिये मैं मन्द-बुद्धि भी करूं नाथ ! तव स्तुति प्रारंभ, तव प्रभाव से चित्त हरेगी सत्पुरुषों का यह अविलंब । है इसमें संदेह न कोई पत्र कमलिनी पर जिस भाँति, संगति पाकर आ जाती है जल-कण में मोती सी कान्ति ।।8।। दूर रहे स्तुति प्रभो ! आपकी दोष-रहित गुण की भण्डार, तीनों जग के पापों का तव चर्चा से हो बंटाढार । दूर रहा दिनकर, पर उसकी अति बलशाली प्रभा विशाल, विकसित कर देती कमलों को सरोवरों में प्रातःकाल ॥9॥ तीनों भुवनों के हे भूषण ! और सभी जीवों के नाथ !! है न अधिक अचरज इसमें जो सत्य-गुणों का लेकर साथ। तव स्तुति गाता जिनपद पाता इसी धरा पर अपने आप, जो न कर सके शरणागत को निज-समान उससे क्या लाभ?॥10॥ अपलक दर्शन-योग्य आपके, दर्शन पा दर्शक के नैन, हो जाते सन्तुष्ट पूर्णत:, अन्य कहीं पाते ना चैन । चन्द्र-किरण सा धवल मनोहर, क्षीर-सिन्धु का कर जल-पान खारे सागर के पानी का स्वाद कौन चाहे मतिमान् ?011|| हे त्रि-भुवन के अतुल शिरोमणि! अतुल-शान्ति की कान्ति-प्रधान, जिन अणुओं ने रचा आपको, सारे जग में शोभावान।
725