Book Title: Mantung Bharti
Author(s): Dhyansagar
Publisher: Sunil Jain

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Page 43
________________ ___54 55 समझते, जिसके चन्द्रमा-सम श्वेत बड़े-बड़े दाँत मूसलों के समान हैं, जो सूंड फटकार-फटकार कर अत्यधिक उत्साहित हो रहा है, जिसकी आँखें मधु के समान भरी हैं, लँड लम्बी है और वर्ण सजल-मेघ-सम काला है। युद्ध-भय-निवारण:- हे पापों को शांत करनेवाले पार्श्व-जिन | आपके प्रभाव से भक्त-योद्धा उस भयंकर युद्ध में भी शत्रु-राजाओं का मान-मर्दन करके उज्ज्वल यश प्राप्त कर लेते हैं, जहाँ पैनी तलवारों से प्रेरित कबन्ध (मस्तक रहित धड़) कम्पायमान हैं और बड़े-बड़े हाथी भालों के प्रहारों से विदीर्ण हो कर प्रचुरता से सीत्कार-ध्वनि कर रहे हैं। उपसंहारात्मक एक काव्य में, पार्श्व-जिनेन्द्र के नाम का संकीर्तन उक्त सभी भयों का निवारक है, ऐसा उल्लेख है। _आगामी तीन काव्यों में, जिस प्रकार स्वयंभू-स्तोत्र में समन्तभद्र स्वामी ने और शान्त्यष्टक में पूज्यपाद स्वामी ने तीर्थंकरों से प्रार्थना की, उसी प्रकार स्तोत्रकार ने पार्श्व-तीर्थकर से प्रार्थना की है। वृषभ-जिनेन्द्र की स्तुति करते हुये स्वयंभूस्तोत्र में कहा है:पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो, जिनो जितक्षुल्लकवादिशासनः। अर्थात् जिन्होंने क्षुद्रवादियों के शासन पर विजय प्राप्त कर ली है, ऐसे नाभिपुत्र वृषभ-जिन मेरे मन को पवित्र करें। इसी प्रकार शान्त्यष्टक में आचार्य कहते हैं, कारुण्यान्मम भाक्तिकस्य च विभो ! दृष्टिं प्रसन्नां कुरु म अर्थात् हे विभो । करुणापूर्वक मुझ भक्त की दृष्टि प्रसन्न कीजिये। भयहर-स्तोत्र में स्तोत्रकार कहते हैं- अष्ट संकटों की भाँति राजभय, यक्षराक्षसों की बाधा, दुःस्वप्न, अपशकुन एवं ग्रह-नक्षत्र संबन्धी पीड़ा होने पर, यात्रा के समय मार्ग में, अथवा उपसर्ग के आने पर, रात्रियों में और प्रातः सायंकाल स्तोत्र-पाठ अथवा स्तोत्र-श्रवण करनेवाले मानव का अशुभ कर्म जगत्-पूज्य आचरण के धारी पार्श्व-प्रभु शांत करें, भले ही वह स्वयं कवि-मानतुङ्ग भी क्यों न हो । इसे सुधी पाठक कर्तृत्ववाद का समर्थन न मानकर एक भक्तिपरक कथन के रूप में ही स्वीकार करें। 19वें काव्य से इस स्तोत्र का नाम भयहर होना संभावित है। यह स्तोत्र कल्याणपरम्परा की निधि एवं भव्यों के लिये आनन्दकारी है। आगे कहा है कि जो कमठ से उपसर्ग पर्यन्त (7 दिनों तक) विचलित नहीं हुए, ऐसे देव, मनुष्य और किन्नरों द्वारा संस्तुत पार्श्व-जिन जयवन्त हों। पश्चात् इस स्तोत्र में निहित एक अष्टादश वर्णों से बनने वाले मन्त्र की सूचना देकर कहा है कि जो इस गुप्त मन्त्र को ढूंढ लेता है, वह पार्श्व-प्रभु का पदस्थ-ध्यान करता है अर्थात मन्त्र जाप द्वारा धर्म्यध्यान करता है। यह जाप्य गुरु से विधिवत् ग्रहण किया जाता है। ॐ ह्रीं अहँ नमिऊण पासं विसहर विसह जिण फुलिंग ह्रीं श्रीं नमः अन्तिम दोहे में, प्रसन्न-हृदय से पार्श्व-स्मरण करने वाला 108 व्याधियों के भय से छूट जाता है, ऐसा कथन है अर्थात् 108 व्याधियाँ उसके पास नहीं फटकतीं। -यह उल्लेखनीय है कि इस प्राकृत-भाषा-निबद्ध स्तुति में स्तोत्रकार ने भगवान् | पार्श्वनाथ स्वामी का शुभनाम 21 वें काव्य-पर्यन्त चार बार लिया और 22 वें पद्य तथा अन्तिम दोहे में भी भगवान का नाम स्पष्टत: उल्लिखित किया, जबकि भक्तामर में कहीं भी साक्षात् नामोल्लेख नहीं किया। हाँ प्रथमं जिनेन्द्रम् एवं आद्यं शब्दों द्वारा आदिनाथ भगवान् की ओर संकेत अवश्य किया है। भगवान् के नामों को उभयत्र मंत्र-तुल्य स्वीकार किया है (दे. भक्तामर काव्य 46 और भयहर गाथा 9) जिससे यह परिलक्षित होता है कि न तो मंत्र-शक्ति मिथ्या है, न ही मन्त्राराधना मिथ्यात्व। जैसे औषध की रोग-निवारक-शक्ति सर्वमान्य है, वैसे ही मंत्रों की शक्तियाँ भी नोकर्मरूप से मान्य हैं तथा ऐसा स्वीकार करने पर वस्तुव्यवस्था में कहीं विपर्यास नहीं आता। हाँ मन्त्रों के चमत्कारों द्वारा लोक प्रतिष्ठा में फँसना, हितकर नहीं। यदि मन्त्र आगमोक्त एवं परमेष्ठी के वाचक हों, तो धर्माध्यानार्थ उन्हें गुरु-मुख से विधिवत् ग्रहण करना कोई पाप नहीं है। मूलाचार में आयरिय पसाएण य विजा मंता य सिझंति ॥ 577 ॥ ऐसा उल्लेख है, अर्थात् आचार्य की कृपा से विद्याएँ और मन्त्र सिद्ध हो जाते हैं तथा द्रव्य संग्रह में अण्णं च गुरूवएसेण अर्थात् कोई अन्य परमेष्ठी का वाचक मंत्र भी गुरु के उपदेश से जपा जा सकता है, ऐसा उल्लेख है। आचार्य धरसेन स्वामी ने शिष्यों की परीक्षा मन्त्रों से ही की थी (दे. षट्खण्डागम-अवतरण कथा) । आचार्य कुन्दकुन्द

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