Book Title: Mantung Bharti
Author(s): Dhyansagar
Publisher: Sunil Jain

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Page 34
________________ आपके समवसरण-जैसा वैभव अन्य का कहाँ? तीर्थ-प्रवर्तन के लिये आपने सारे आर्यखंड में आकाश-मार्ग से अद्भुत पद-विहार किया। उन्निद्र-हेम-नव-पङ्कज-पुञ्ज-कान्ति'पर्युल्लसन्नख-मयूख-शिखाभिरामौ। पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्तः, पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥ 36॥ इत्थं यथा तव विभूतिरभूजिनेन्द्र! धर्मोपदेशन-विधौ न तथा परस्य। यादृक्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा, तादृक्कुतो ग्रह-गणस्य विकाशिनोऽपि॥ 37॥ अन्वयार्थ (जिनेन्द्र) हे जिनेन्द्र । (उन्निद्र-हेम-नव-पङ्कज-पुञ्ज कान्ति-पर्युल्लसन्नख-मयूखशिखाभिरामौ) जो खिले हुए नवीन स्वर्ण-कमलों के पुंज-सम कान्ति और सब ओर प्रकाशमान नखों की किरण-शिखाओं के कारण मनोहर हैं, ऐसे (तव पादौ) आपके दो चरण (यत्र) जहाँ (पदानि धत्तः) डग भरते हैं, (तत्र) वहाँ (विबुधाः) देव (पद्मानि परिकल्पयन्ति) कमलों की रचना कर देते हैं। अन्वयार्थ (इत्थं) इस रीति से (जिनेन्द्र) हे जिनेन्द्र । (धर्मोपदेशन-विधौ)धर्मोपदेश की विधि में (यथा) जिस प्रकार (तव विभूति:) आपकी विभूति (अभूत्) हुई थी, (तथा) उस प्रकार (परस्य न) अन्य की नहीं हुई। (यादृक्) जैसी (प्रहतान्धकारा प्रभाः) अन्धकार-विनाशक प्रभा (दिनकृतः) सूर्य की होती है, (तादृक्)वैसी (विकाशिनः अपि ग्रह-गणस्य) प्रकाशमान होते हुए भी ग्रहों के समूह की (कुतः) कैसे संभव है? पद्यानुवाद खिले हुए नव स्वर्ण-कमल-दल जैसी सुखद कान्ति के धाम, नख से चारों ओर बिखरती किरण-शिखाओं से अभिराम। ऐसे चरण जहाँ पड़ते तव, वहाँ कमल दो सौ पच्चीस, स्वयं देव रचते जाते हैं और झुकाते अपना शीश॥ पद्यानुवाद धर्म-देशना में तव वैभव इस प्रकार ज्यों हुआ अपार, अन्य किसी के वैभव ने त्यों नहीं कहीं पाया विस्तार। होती जैसी प्रखर प्रभा प्रभु! रवि की करती तम का नाश, जगमग-जगमग करने पर भी कहाँ ग्रहों में वही प्रकाश?॥ अन्तर्ध्वनि हे जिनेन्द्र | आपके विहार की छटा निराली है। विकसित हुए नवीन स्वर्ण-कमलों के पुञ्ज-सम कान्तिमान तथा दर्पण-सम स्वच्छ नखों के आस-पास विकीर्णित किरणों से नयनाभिराम आपके श्री चरण गमन-काल में जहाँ डग भरते हैं, वहाँ देव-गण आपके निक्षिप्त चरण-तले एक दिव्य-कमल और सब ओर ३२ पंक्तियों में ७-७ कमलों की भव्य-रचना करते हैं। कुल २२५ कमल होते हैं और वह दृश्य सचमुच ही एक अद्भुत दृश्य होता है। अन्तर्ध्वनि देव-रचित बारह योजन विस्तृत समवसरण में, हे अरहंत । जो वैभव आपके धर्मोपदेश के समय हुआ था, वह अन्यत्र नहीं हुआ, सो ठीक ही है। जो प्रभाव सूर्य की तमोनाशक प्रभा का होता है वह ग्रह-समूह में कैसे संभव है, भले ही वह प्रकाशमान हो? हे तीर्थनायक | आप वास्तव में प्रथम-अद्वितीय थे। कुल मिलाकर आपका उपदेश धर्म को ही उद्घाटित करता है जिसे अपनाकर भक्त का मार्ग सुखकर हो जाता है। आपकी अपार विभूति का मूल भी तो धर्म ही था। 1. पुञ्ज -कान्ती 1. तथापरस्य

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