Book Title: Mantung Bharti
Author(s): Dhyansagar
Publisher: Sunil Jain

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Page 19
________________ मैं भक्ति से अभिभूत हूँ, इसलिये वाचाल हो रहा हूँ ! अल्प- श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरी- कुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चाम्र- चारु- कलिका - निकरैक - हेतु' ॥ 6 ॥ अन्वयार्थ (त्वद्भक्तिः एव) आपकी भक्ति ही (मां) मुझ (अल्प- श्रुतं) अल्पज्ञ एवं (श्रुतवतां परिहास-धाम) विद्वानों के हास्य- पात्र को (बलात्) हठ-पूर्वक (मुखरी-कुरुते) बातूनी बना रही है। (मधौ किल) वसन्त ऋतु में ही (कोकिलः) कोयल ( यत्मधुरं ) जो मीठी (विरौति) उच्च ध्वनि करती है, (तत् च) वह (आम्रचारु - कलिका - निकरैक हेतु) केवल आम्रवृक्षों पर लगे सुन्दर बौरों के गुच्छों के कारण है। पद्यानुवाद मन्द-बुद्धि हूँ, विद्वानों का हास्य- पात्र भी हूँ मैं नाथ ! तो भी केवल भक्ति आपकी मुखर कर रही मुझे बलात् । ऋतु वसंत में कोकिल कूके मधुर-मधुर होती आवाज़, आम्रवृक्ष पर बौरों के प्रिय गुच्छों में है उसका राज़ ॥ अन्तर्ध्वनि हे भगवन्! मेरा ज्ञान थोड़ा सा है, अतः विद्वज्जन मुझ पर हँसेगे, पर क्या करूँ? आपकी भक्ति ही मुझे वाचाल होने को बाध्य कर रही है। सामान्यतः वर्षा काल से शीत-काल तक मौन धारण करने वाली कोयल, वसंत ऋतु में आम्र-मंजरियों के कारण कूकने को विवश हो जाती है। यह ठीक भी है, भक्ति से तो भक्त की मन्थर बुद्धि भी आगामी काल में विकसित हो कैवल्यरूप परिणत हो जाती है। 1. तच्चारु - चूत - कलिका-निकरैक-हेतु ॥ 7 आपकी उत्तम स्तुति पापनाशिनी है। त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति- सन्निबद्धं, पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् । आक्रान्त - लोकमलि-नीलमशेषमाशु, सूर्यांशु - भिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥ 7 ॥ अन्वयार्थ (शरीरभाजां) देहधारियों का ( भव-सन्तति सन्निबद्धं) जन्म-परंपरा से दृढ़तापूर्वक बाँधा गया (पापं पाप, (त्वत्संस्तवेन) आपकी उत्तम स्तुति के द्वारा (क्षणात्) क्षण भर में (आशु सूर्यांशुभिन्नं) सूर्य किरणों द्वारा तत्काल नष्ट हुए (आक्रान्तलोकं जगत-व्यापी तथा (अलि-नीलं) भ्रमर-सम काले (शार्वरं अन्धकारं इव) रात्रि कालीन अन्धकार के समान (अशेषं) पूर्णतः (क्षयं उपैति ) विनाश को प्राप्त हो जाता है। पद्यानुवाद निशा काल का अलि-सम काला जग में फैला तिमिर महान् प्रातः ज्यों रवि किरणों द्वारा शीघ्रतया करता प्रस्थान । जन्म- शृखला से जीवों ने बाँधा है जो भीषण पाप, क्षण भर में तव उत्तम स्तुति से कट जाता वह अपने आप ॥ अन्तर्ध्वनि हे देव! जैसे अमावस का घना अँधेरा भी प्रभात में सूर्य किरणों द्वारा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार आपकी स्तुति से प्राणियों का अनेक जन्म-संबंधी पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। स्तुति के इस प्रभाव को कौन नकार सकता है? वस्तुतः स्तुति पुण्य-संचय के साथ ही पाप-क्षय में भी अतिशय समर्थ होती है। सिद्धांत-ग्रन्थों द्वारा भी यही तथ्य यत्र-तत्र प्रमाणित होता है, अतः यह कोई अतिशयोक्ति या औपचारिक कथन नहीं है।

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