Book Title: Mantung Bharti
Author(s): Dhyansagar
Publisher: Sunil Jain

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Page 18
________________ स्तुति करने की सामर्थ्य किसमें है ? मेरा प्रयत्न भक्ति का चमत्कार है! सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश! कर्तुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः। प्रीत्यात्म-वीर्यमविचार्य मृगी' मृगेन्द्रं, नाभ्येति किं निज-शिशोः परिपालनार्थम्॥5॥ वक्तुं गुणान् गुण-समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षमः सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या। कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं, को वा तरीतुमलमम्बु-निधिं भुजाभ्याम्॥4॥ अन्वयार्थ (गुण-समुद्र) हे गुणों के सागर ! (बुद्ध्या) बुद्धि की अपेक्षा (सुर-गुरु-प्रतिमः अपि) देवों के गुरु बृहस्पति के समान होकर भी (ते) आपके (शशाङ्क-कान्तान् गुणान्)चंद्रमा जैसे मनोहर गुणों को (वक्तुं) कहने के लिए (क:) कौन (क्षमः) समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं। (कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं अम्बु-निधि)जहाँ प्रलयकालीन आँधी से भड़के हुए घड़ियालों के झुंड विद्यमान हैं, ऐसे समुद्र को (भुजाभ्यां तरीतु) भुजाओं द्वारा तैरने के लिये (को वा) भला कौन (अलं) समर्थ होगा? कोई भी नहीं। पद्यानुवाद हे गुणसागरा शशि-सम सुन्दर तव शुचि गुण-गण का गुण-गान, कोई कर न सके चाहे वह सुर-गुरु सा भी हो मतिमान्। प्रलय-पवन से जहाँ कुपित हो घड़ियालों का झुंड महान्, उस सागर को कैसे कोई भुज-बल से तैरे बलवान् ?॥ अन्तर्ध्वनि हे गुण-सागर । आपके चंद्रमा-सम रुचिकर गुणों को कहने के लिये कौन समर्थ है, भले ही वह देवताओं के गुरु बृहस्पति-सा बुद्धिमान भी क्यों न हो? क्रुद्ध मगरमच्छों से परिपूर्ण प्रलय-समुद्र को भुजाओं द्वारा कौन पार कर सकता है? अन्वयार्थ (तथापि मुनीश) तो भी हे मुनीश। (सोऽहं) वह मैं हूँ, जो (विगत-शक्ति:अपि) शक्ति से रहित होकर भी (तव भक्ति-वशात्) आपकी भक्ति के प्रभाव से (स्तवं कतुं) स्तुति करने के लिये (प्रवृत्तः)कटिबद्ध हूँ। (प्रीत्या) नेहवश (आत्मवीर्य अविचार्य) अपनी शक्ति का विचार न करके (किं मृगी) क्या हिरणी (निजशिशो: परिपालनार्थ) अपने बच्चे की रक्षा के लिये (मृगेन्द्रं न अभ्येति) सिंह के सामने नहीं आ जाती? पद्यानुवाद तो भी स्वामी! वह मैं हूँ जो तव स्तुति करने को तैयार, मुझ में कोई शक्ति नहीं पर भक्ति-भाव का है संचार। निज-बल को जाँचे बिन हिरणी निज शिशु की रक्षा के काज, प्रबल स्नेह-वश डट जाती है आगे चाहे हो मगराज ॥ अन्तर्ध्वनि असंभव कार्य को प्रारंभ करना विवेक-हीनता है, तथापि मैं आपकी स्तुति करने का साहस कर रहा हूँ। हे मुनीश । अपनी शक्ति की जाँच-पड़ताल किये बिना, क्या हिरणी अपने बच्चे को बचाने के लिए स्नेह के आवेग में सिंह से नहीं भिड़ जाती? मैं भी अपनी भावना को थामने में समर्थ नहीं हैं। क्या करूँ? आपकी भक्ति का प्रबल वेग ही मुझे उचितानुचित के विवेक से शून्य कर रहा है। मेरी विवशता को आप भी जानते हैं। 1. आवेश-आवेग 1 मृगो

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