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आपकी यशः कीर्ति अनिरुद्ध है !
सम्पूर्ण-मण्डल- शशाङ्क-कला-कलापशुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लङ्घयन्ति । ये संश्रितास्त्रि - जगदीश्वर' - नाथमेकं, कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम् ॥ 14 ॥
अन्वयार्थ
(सम्पूर्ण मण्डल- शशांङ्क-कला-कलाप - शुभ्राः) जो पूर्ण गोलाकार चन्द्रमा की कलाओं के समूह जैसे उज्ज्वल हैं, ऐसे (तव गुणाः) आपके गुण (त्रि-भुवनं ) तीनों जगत को (लङ्घयन्ति) लांघ रहे हैं। (ये) जो (एक) एक अद्वितीय (त्रिजगदीश्वर - नाथं) तीनों जगत के स्वामियों के स्वामी के (संश्रिताः) आश्रय को प्राप्त हैं, (यथेष्टं सञ्चरतः तान् ) इच्छानुसार भ्रमण करनेवाले उन्हें (क: निवारयति) कौन रोक सकता है?
पद्यानुवाद
पूर्ण-चन्द्र के कला-वृन्द सम धवल आपके गुण सब ओर, व्याप्त हो रहे हैं इस जग में उनके यश का कहीं न छोर । ठीक बात है जो त्रि-भुवन के स्वामी के स्वामी के दास, मुक्त विचरते उन्हें रोकने कौन साहसी आता पास ? ॥
अन्तर्ध्वनि
हे यशस्विन्! आपका पूर्ण चन्द्र सा धवल सुयश विश्वव्यापी हो रहा है, जो उचित भी है। जब एक सामान्य राजदूत भी सम्मान पूर्वक सर्वत्र भ्रमण करता है, तब इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्तियों के स्वामी के गुणों का यथेष्ट संचार कौन रोके? आपकी ज्ञान कला की चरम सीमा ही अनन्त सुख है तथा आप अनन्त शक्ति के पुंज हैं। ऐसे गुणों का यश जगत भर में निर्बाध संचार कर रहा है। जब आपका भक्त निर्द्वन्द्व विचरता है, तब आपका यश तो यश ही है।
1. संश्रितास्त्रिजगदीश्वर ।
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आपके चित्त को विकार कैसे छू सकते हैं ?
चित्र किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभिनतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् ।
कल्पान्त-काल- मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित् ॥ 15 ॥
अन्वयार्थ
(यदि ते मनः) यदि आपका मन (त्रिदशाङ्गनाभिः) देवांगनाओं/अप्सराओं द्वारा ( मनाक् अपि) तनिक भी (विकार-मार्ग) विकार मार्ग पर ( न नीतं ) नहीं ले जाया गया, तो (अत्र चित्रं किं) इसमें आश्चर्य क्या? (चलिताचलेन कल्पान्तकाल - मरुता) पहाड़ों को चलायमान करने वाली प्रलयकालीन आँधी से (किं कदाचित् ) क्या कभी (मन्दराद्रिशिखरं चलितं) सुमेरु पर्वत का शिखर चलायमान हुआ है?
पद्यानुवाद
यदि सुरांगनाएँ तव मन में नहीं ला सकीं तनिक विकार, तो इसमें अचरज कैसा? प्रभु ! स्वयं उन्हीं ने मानी हार । गिरि को कंपित करने वाला प्रलयकाल का झंझावात, कभी डिगा पाया क्या अब तक मेरु-शिखर को जग विख्यात ? ॥
अन्तर्ध्वनि
हे ब्रह्मलीन इन्द्रियजयी ! क्या प्रलय कालीन आँधी सुमेरु पर्वत को डिगा सकती है? फिर यदि अप्सराएँ आपको तपश्चरण से तनिक भी विचलित न कर पायीं, तो आश्चर्य कैसा? ब्रह्मस्वरूप आत्मा के आनन्द का आस्वादन करने पर विषय-वासना को अवकाश कहाँ? पवित्र हृदय में दुर्भावना कैसी? आप तो वैराग्य और तत्त्वज्ञान की साक्षात् मूर्ति हैं, साधुत्व की पराकाष्ठा है, अतः आपका करुणामय विश्व-प्रेम भी निःस्वार्थ होने के कारण बिलकुल निष्कलंक है।
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