Book Title: Manonushasanam
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ ज्ञान से सत्य ज्ञात होता है । दर्शन से वह स्थिर होता है । चरित्र से असत्य का सम्पर्क विच्छिन्न होता है और तप से असत्य के सचित सस्कार क्षीण होते है । चारो के समवाय से आत्मा असत्य से विच्छिन्न होकर अपने सत्य स्वरूप मे प्रतिष्ठित हो जाती है । साधना की समग्र पद्धति जिस मन्दिर की परिक्रमा करती है, उसका देवता है - मन । उसकी सिद्धि सबकी सिद्धि और उसकी असिद्धि सवकी असिद्धि होती है । केशी स्वामी ने गौतम से पूछा- तुम शत्रुओ पर विजय कैसे प्राप्त करते हो ? गौतम ने कहा - भते । मै एक पर विजय प्राप्त करता हूं। उससे चार स्वय विजित हो जाते है । उनके विजित होने पर पाच और विजित होते है । इस प्रकार दस पर विजय प्राप्त कर लेता हू। इसका अर्थ यह होता है कि मै सव शत्रुओ पर विजय पा लेता हू । केशी ने फिर पूछा- तुम शत्रु किसे समझते हो ? गौतम ने कहा - आत्मा, कपाय-क्रोध, मान, माया और लोभऔर पचेन्द्रिय, ये दस शत्रु है । मै इन पर विजय प्राप्त कर सुख से विचरता हू | यहा आत्मा का अर्थ मन है । इसे जीते विना कषाय और इन्द्रिय पर विजय प्राप्त नही हो सकती । इसलिए 'मनोनुशासनम्' की अपने आप सार्थकता है । मन को अनुशासित करने के लिए शरीर, श्वास आदि को अनुशासित करना भी आवश्यक होता है । प्रस्तुत ग्रन्थ मे मन तथा उसके लिए अन्य जितने भी अनुशासनीय है, उन सबके अनुशासन की प्रक्रिया निरूपित की गई है। आचार्यश्री तुलसी महान् प्रेरणा स्रोत है । वे स्वय प्रकाशित और पर - प्रकाशी है । उन्होने समय-समय पर ज्योति विकीर्ण की है । तत्त्वज्ञान की अपेक्षा थी, तब आचार्यवर ने 'जैन सिद्धान्त दीपिका' की रचना की। वह तत्त्वजिज्ञासु व्यक्तियो के लिए बहुत ही प्रेरक वनी ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 237