Book Title: Mahavir Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ २० महावीर वर्धमान भय से श्रमण लोग लाठी आदि लेकर विहार करते थे, परन्तु फिर भी वे उन के उपद्रव से नहीं बच सकते थे। इतना होने पर भी दीर्घ तपस्वी महावीर ने मन, वचन, काय से प्राणियों को कष्ट न पहुँचाते हुए, शरीर का ममत्व छोड़कर, संग्राम के अग्रभाग में युद्ध करते हुए निर्भय हाथी की तरह लाढ़ देश की दुर्जय परीषह सहन की। इस देश में ग्रामों की संख्या बहुत कम थी। जब महावीर किसी ग्राम में पहुँचते तो लोग उन्हें निकाल बाहर करते, अथवा दण्ड, मुष्टि, भाला, मिट्टी के ढेले और ठीकरों से उन्हें कष्ट पहुँचाते और शोर मचाते थे। ये लोग उनके शरीर में से मांस काट लेते और उन पर धूल फेंकते थे; उन्हें ऊपर उछालकर नीचे फेंक देते और उन्हें उन के गोदोहन, उकडूं आदि आसनों से गिरा देते थे। कितनी बार महावीर को गुप्तचर समझकर, चोर समझकर पकड़ लिया गया, रस्सी से बाँध लिया गया, मारा गया, पीटा गया, गड्ढों में लटका दिया गया, जेलों में डाल दिया गया, और कई बार तो उन्हें फाँसी के तख्ते से लौटाया गया । एक बार महावीर तापसों के किसी आश्रम में एक झोंपड़ी में ठहरे हुए थे। उस समय वर्षा न होने से नवीन घास पैदा नहीं हुई थी, अतएव गाँव की गायें वहाँ आकर झोंपड़ी की घास खाती थीं। तापस लोग उन्हें डंडों से मारकर भगा देते थे, परन्तु महावीर झोंपड़ी की परवा किये बिना अपने ध्यान में बैठे रहते थे। आश्रम के कुलपति को जब यह मालूम हुआ तो उन्हों ने महावीर को बहुत उलाहना दिया। इस पर महावीर उस झोंपड़ी को छोड़कर अन्यत्र विहार कर गये। उस समय महावीर ने नियम लिया कि जहाँ रहने से दूसरों को क्लेश पहुँचे वहाँ कभी नहीं रहना तथा जहाँ रहना वहाँ मौन और कायोत्सर्ग (खड़े होकर ध्यान करना) पूर्वक रहना। एक बार २१ ध्यान रखने की बात है कि दिगम्बर परम्परा के अनुसार तीर्थकर उपसर्गातीत माने जाते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70