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जैनधर्म लोकधर्म
बहुत प्रसन्न हुआ और उसे राजगद्दी पर बैठा दिया। इस दृष्टांत से पता लगता है कि अहिंसा में लोकहित की तीव्र भावना थी।
१३ जैनधर्म-लोकधर्म
पहले कहा जा चुका है कि महावीर का धर्म किसी व्यक्ति-विशेष के लिये नहीं था, वह जनसाधारण के लिये था। जैन शास्त्रों में कहा है कि केवलज्ञान होने के पश्चात् तीर्थंकर बनने के लिये जगत् को उपदेश देकर जगत् का कल्याण करना परमावश्यक है, अन्यथा तीर्थंकर, तीर्थंकर नहीं कहा जा सकता । श्रमणसंघ का तो काम ही यह था कि वे जनपदविहार करें, देश-देशांतर परिभ्रमण करें, और अपने आदर्श जीवन द्वारा, अपने सदुपदेशों द्वारा प्रजा का कल्याण करें। संस्कृत भाषा को त्यागकर लोकभाषा-मागधी अथवा अर्धमागधी (जो मगध-बिहार प्रान्त की भाषा थी) में महावीर ने जो उपदेश दिया था उस का उद्देश्य यही था कि वे अपनी आवाज़ को बाल-वृद्ध, स्त्री तथा अनपढ़ लोगों तक पहुँचाना चाहते थे। उस युग में समाचार-पत्र, रेडियो आदि न होने पर भी महावीर
और बुद्ध के उपदेश इतनी जल्दी लोकप्रिय हो गये थे, इस से मालूम होता है कि इन संत पुरुषों के सीधे-सादे वचनों ने जनता के हृदय पर अद्भुत प्रभाव डाला था। आगे चलकर भी जैन श्रमणों ने अपने धर्म को लोक
२ व्यवहार भाष्य ४, पृ० ३८ ९३ तुलना करो
बुज्झाहि भगवं लोगनाहा ! सयलजगज्जीवहियं पवत्तेहि धम्मतित्यं । हियसुयनिस्सेयसकरं सव्वलोए सव्वजीवाणं भविस्सइ ति ॥
(कल्पसूत्र ५.१११)
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