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अहिंसा का व्यापक रूप-जगत्कल्याण की कसौटी ४६ विष्णुकुमार मुनि की कथा दिगम्बर और श्वेतांबर दोनों ग्रन्थों में आती है। वर्षा ऋतु में साधु को विहार करना निषिद्ध है, परन्तु जब विष्णुकुमार मुनि को ज्ञात हुआ कि नमुचि नामक ब्राह्मण राजा हस्तिनापुर में जैन श्रमणों को महान् कष्ट पहुँचा रहा है तो वे वर्षाकाल की परवा न करके अपना ध्यान भंगकर हस्तिनापुर आये और नमुचि से तीन पैर स्थान माँगकर उसे समुचित दण्ड देकर श्रमण-संघ की रक्षा की। बहुत बार राजा लोग श्रमणों के धर्म से द्वेष करनेवाले होते थे और इसलिये वे उन्हें बहुत परेशान करते थे। ऐसी असाधारण परिस्थिति उपस्थित होने पर कहा गया है कि जैसे चाणक्य ने नन्दों का नाश किया, उसी प्रकार प्रवचनप्रद्विष्ट राजा का नाशकर संघ और गण की रक्षाकर पुण्योपार्जन करना चाहिये। अनेक बार जब श्रमणियाँ भिक्षा के लिये पर्यटन करती थीं तो नगरी के तरुण जन उन का पीछा करते थे और उन के साथ हँसी-मज़ाक़ करते थे। ऐसे प्रापद्धर्म के अवसर पर बताया है कि अस्त्र-शस्त्र में कुशल तरुण साधु श्रमणी के वेष में जाकर उद्दण्ड लोगों को अमुक समय अमुक स्थान पर मिलने का संकेत देकर उन्हें समुचित दण्ड दे । सुकुमालिया साध्वी की कथा जैन ग्रंथों में आती है-वह अत्यन्त रूपवती थी, अतएव जब वह भिक्षा के लिये जाती तो तरुण लोग उस का पीछा करते और कभी कभी तो उपाश्रय में भी घुस जाते थे। प्राचार्य को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने सुकुमालिया के साधु भ्राताओं को उस की रक्षा के लिये नियुक्त किया। दोनों भाई राजपुत्र होने के कारण सहस्त्र-योधी थे, अतएव जो कोई उन की बहन से छेड़-छाड़ करता उसे वे उचित दण्ड देते थे।
"बृहत्कल्प भाष्य ३, पृ० ८८०; व्यवहार भाष्य ७, पृ० ९४-५; १, १० ७७
" बृहत्कल्प भाष्य २, पृ० ६०८ "वही, ५, पृ० १३६७-८
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