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महावीर-वचनामृत अर्थ-अपने लिये अथवा दूसरों के लिये, क्रोध से अथवा भय से, दूसरे को पीड़ा पहुँचानेवाला असत्य वचन न स्वयं बोलना चाहिये और न दूसरों से बुलवाना चाहिये ।
४ न सो परिग्गहो वुत्तो, . नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा ॥
(दशवकालिक ६.२१) अर्थ-संरक्षक ज्ञातृपुत्र महावीर ने वस्त्र आदि पदार्थों को परिग्रह नहीं कहा, वास्तविक परिग्रह है मूर्छा-आसक्ति, यह महर्षि का वचन है।
५ जे य कंते पिए भोगे, लद्धे वि पिढिकुम्वई ।
साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ ति बुच्चई ॥ ६ वत्थगन्धमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य। अच्छन्दा जे न भुंजंति, न से चाइ त्ति वुच्चई ॥
(दशवकालिक २.१,२) ___ अर्थ-जो मनुष्य सुन्दर और प्रिय भोगों को पाकर भी उन की ओर से पीठ फेर लेता है, सामने आये हुए भोगों का परित्याग कर देता है, वही त्यागी कहलाता है। वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री, शयन आदि वस्तुओं का जो परवशता के कारण उपभोग नहीं करता, उसे त्यागी नहीं कहते।
७ वित्तण ताणं न लभे पमत्ते,
इमम्मि लोए अदुवा परत्य । दीवप्पणठे व अणंतमोहे नेयाउयं दद्रुमद?मेव ॥
(उत्तराध्ययन ४.५) अर्थ-प्रमादी पुरुष धन द्वारा न इस लोक में अपनी रक्षा कर सकता है, न परलोक में। फिर भी धन के असीम मोह से, जैसे दीपक के बुझ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com