Book Title: Mahavir Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ ५० महावीर वर्धमान ____ यद्यपि उक्त उदाहरण अपवाद अवस्था के हैं, परन्तु ये इस बात के द्योतक हैं कि जैन भिक्षु आपत्काल आने पर आततायी जनों को उचित दण्ड देने के लिये जो बाध्य हुए उस का कारण था एकमात्र लोकहित-श्रमणसंघ की रक्षा। आगे चलकर अर्वाचीन जैन ग्रन्थों में जो हिंसा के संकल्पी, प्रारंभी, उद्योगी और विरोधी इस प्रकार चार भेद बताकर गृहस्थ को संकल्पी अर्थात् इरादेपूर्वक, जान बूझकर की हुई हिंसा को छोड़कर बाक़ी तीन हिंसायें करने की जो छूट दी गई है वह भी यही घोषित करता है कि जगत् का कल्याण ही अहिंसा की एकमात्र कसौटी है। वास्तव में अहिंसा, सत्य आदि गुण जब तक सामूहिक रूप न धारण कर लें तब तक उनका जनहित की दृष्टि से कोई मूल्य नहीं। जैनधर्म ने अहिंसा के पालन करने में कोई ऐसी शर्त नहीं लगाई जिस से किसी राजा या क्षत्रिय को प्रजा का पालन करते समय अपने राजकीय कर्त्तव्य से च्युत होना पड़े। इसके विपरीत जैन शास्त्रों में श्रेणिक, कूणिक अजातशत्रु, चेटक, संप्रति, खारवेल, कुमारपाल आदि अनेक राजाओं के उदाहरण मिलते हैं जिन्हों ने प्रजा की रक्षार्थ शत्रु से युद्ध किया। भरत आदि चक्रवर्ती राजाओं की दिग्विजयों के विस्तृत वर्णन भी इस के द्योतक हैं। अतएव मानना होगा कि जिस अहिंसा में लोककल्याण की भावना है, जनसमाज का हित है उसी को अहिंसा माननी चाहिये । जैन ग्रंथों में एक राजा की कथा आती है-- किसी राजा के तीन पुत्र थे। वह उन में से एक को राजगद्दी पर बैठाना चाहता था, परन्तु निश्चय न कर पाता था कि किस को बैठाना चाहिये । एक दिन राजा ने तीनों राजकुमारों की थालियों में खीर परोसी और व्याघ्र-समान भयंकर कुत्तों को उन पर छोड़ दिया। पहला राजकुमार कुत्तों के भय से अपनी थाली छोड़कर भाग गया, दूसरे ने डंडे से कुत्तों को मार भगाया और स्वयं खीर खाता रहा, तीसरे राजकुमार ने स्वयं भी खीर खाई और कुत्तों को भी खाने दिया। राजा तीसरे राजकुमार से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70