Book Title: Mahavir Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalay

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Page 40
________________ अनेकांतवाद ३६ है। इस प्रकार हम देखते हैं कि महावीर ने आत्म-विकास, आत्म-अनुशासन और आत्म-विजय पर ही जोर दिया है। वास्तव में कल्याण-मार्ग को भले प्रकार समझ लेना ही केवलित्व या सर्वज्ञत्व है, यही आत्म-ज्ञान की प्रकर्षता है और इसी को तत्त्वज्ञान कहते हैं। जहाँ-तहाँ महावीर का यही उपदेश होता था कि दूसरों को कष्ट मत दो, दूसरों के दुख में अपना दुख समझो, इसी में सब का कल्याण है, इसी में मोक्ष है, उस के लिये न ईश्वर की आवश्यकता है, न किसी बाह्याडंबर की आवश्यकता है, आवश्यकता है आत्मशुद्धि की जो तुम्हारे हाथ में है, अतएव अपने आप को पहचानो और अपने आचरण द्वारा दूसरों का कल्याण करो। १. अनेकांतवाद अनेकांत अहिंसा का ही व्यापक रूप है। राग-द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत न होकर दूसरे के दृष्टिबिन्दु को ठीक ठीक समझने का नाम अनेकांत है ; इस से मनुष्य में तथ्य को हृदयंगम करने की वृत्ति का उदय होता है जिस से सत्य के समझने में सुगमता होती है । अनेकांतवाद के अनुसार किसी भी मत या सिद्धांत को पूर्णरूप से सत्य नहीं मान सकते । प्रत्येक मत अपनी अपनी परिस्थितियों और समस्याओं को लेकर उद्भूत हुआ है, अतएव प्रत्येक मत में अपने-अपने ढंग की विशेषतायें हैं। अनेकान्तवादी उन सब का समन्वयकर उस में से जनोपयोगी मार्ग निकालकर आगे बढ़ता है। अनेकांतवाद के अनुसार प्रत्येक सिद्धांत में किसी न किसी दृष्टि से सचाई है । जब तक मनुष्य अपने ही धर्म या सिद्धान्त को ठीक समझता रहता है, अपनी ही बात को परम सत्य माना करता है, उस में दूसरे के दृष्टिबिन्दु को समझने की विशालता नहीं आ पाती और वह कूप-मण्डूक बना रहता है । उपाध्याय यशोविजय जी ने कहा है कि सच्चा अनेकांती किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता, वह समस्त दर्शनों के प्रति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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