Book Title: Mahavir Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalay

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Page 46
________________ साधुओं के कष्ट और उनका त्याग ४५ में दूर-दूर परिभ्रमणकर श्रमणधर्म का प्रचार करते थे और समाज में अहिंसा की भावना फैलाते थे । भोजन-पान की इन की व्यवस्था श्रावक और श्राविका करते थे। महावीर ने बुद्ध के समान अपने भिक्षुओं को मध्यममार्ग का उपदेश नहीं दिया था। महावीर बार-बार यही उपदेश देते थे कि हे आयुष्मान् श्रमणो! इन्द्रिय-निग्रह करो, सोते, उठते, बैठते सदा जागरूक रहो और एक क्षण भर भी प्रमाद न करो; न जाने कब कौन सा प्रलोभन आकर तुम्हें लक्ष्यच्युत कर दे, अतएव जैसे अपने प्राप्त को आपत्ति से बचाने के लिये कछुआ अपने अंग-प्रत्यंगों को अपनी खोपड़ी में छिपा लेता है, उसी प्रकार अपने मन पर काबू रक्खो और अपनी चंचल मनोवृत्तियों को इधर-उधर जाने से रोको । भिक्षु लोग महाव्रतों का पालन करते थे, वे अपने लिये बनाया हुआ भोजन नहीं लेते थे, निमंत्रित होकर भोजन नहीं करते थे, रात्रि-भोजन नहीं करते थे, यह सब इसलिये जिस से दूसरों को किंचिन्मात्र भी क्लेश न पहुँचे । संन्यासियों के समान कन्दमूल फल का भक्षण त्यागकर भिक्षावृत्ति पर निर्वाह करने का अर्थ भी यही था कि जिस से श्रमण लोग जन-साधारण के अधिक संपर्क में आ सकें और जन-समाज का हित कर सकें। यह ध्यान रखने की बात है कि जैन भिक्षु उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, इक्ष्वाकु, हरिवंश नामक क्षत्रिय कुलों में तथा वैश्य, ग्वाले, नाई, बढ़ई, जुलाहे आदि के कुलों में ही भिक्षा ग्रहण कर सकते थे, राजकुलों में भिक्षा लेने की उन्हें सख्त मनाई थी, इस से जैन श्रमणों की जनसाधारण तक पहुँचने की अनुपम साध का परिचय प्राचारांग ६.२.१८१, ६.३.१८२ ७. रात्रि में भिक्षा मांगने जाते समय बौद्ध भिक्षु अँधेरे में गिर पड़ते थे, स्त्रियाँ उन्हें देखकर डर जाती थीं, आदि कारणों से बुद्ध ने रात्रिभोजन को मनाई की थी (मज्झिमनिकाय, लकुटिकोपम सुत्त) ___“प्राचारांग २, १.२.२३४; १.३.२४४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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