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महावीर वर्धमान अक्सर उन्हें अपने उपाश्रय का पहरा देना पड़ता था। योग्य वसति के अभाव में साधुओं को वृक्ष के नीचे ठहरना पड़ता था । बीमार हो जाने पर साधुओं को और भी तकलीफ़ होती थी। रोगी को वैद्य के घर ले जाना होता था, अथवा वैद्य को अपने उपाश्रय में बुलाकर लाना पड़ता था। ऐसी हालत में उस के स्नान-भोजन आदि का, तथा आवश्यकता होने पर उस की फ़ीस का प्रबंध करना होता था। दुष्काल की भयंकरता और भी महान् थी। पाटलिपुत्र का दुर्भिक्ष जैन इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा जब कि जैन साधुओं को यथोचित भिक्षा आदि के अभाव में अन्यत्र जाकर रहना पड़ा, जिस के फलस्वरूप जैन आगम प्रायः नष्ट-भ्रष्ट हो गये। ऐसे संकट के समय साधुनों को भिक्षा-प्राप्ति के लिये विविध उपायों का अवलंबन लेना पड़ता था," तथा निर्दोष आहार के अभाव में उन्हें कच्चेपक्के ताल फल आदि पर निर्वाह करना पड़ता था। साध्वियों की कठिनाइयाँ साधुओं से भी महान् थीं, और उन्हें बड़े दारुण कष्टों का सामना करना पड़ता था। युवती साध्वियाँ तीन, पाँच, या सात की संख्या में एक दूसरे की रक्षा करती हुई वृद्धा साध्वियों में अंतर्हित होकर भिक्षा के लिये जाती थीं, और वे अपने शरीर को केले के वृक्ष के समान वस्त्र से ढाँककर बाहर निकलती थीं। __ इस में संदेह नहीं भिक्षु-भिक्षुणीसंघ की स्थापनाकर सचमुच महावीर ने जन-समाज का महान् हित किया था। ये भिक्षु आर्य-अनार्य देशों
७२ बृहत्कल्प भाष्य ३.४७४७-६
वही, १.१६००-७२ ७४ वही, ४.४६५५-५८
वही, १.८०६-६२
मूलाचार ४.१६४
"बृहत्कल्प भाष्य ३.४१०६ इत्यादि; १.२४४३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com