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साधुओं के कष्ट और उनका त्याग
पड़ता था। कहीं झाड़, कहीं झाड़ियाँ, कहीं काँटे, कहीं पत्थर, कहीं गड्ढे और कहीं खाइयाँ इस प्रकार उस समय के मार्ग नाना संकटों से आकीर्ण थे। साधु लोग प्रायः काफ़लों के साथ यात्रा करते थे।६८ चोर-डाकुओं के उपद्रव तो उस समय सर्वसाधारण थे। उस ज़माने में चोरों के गाँव के गाँव बसते थे जिन्हें चोरपल्लि कहा जाता था। इन चोरों का एक नेता होता था और सब चोर उस के नेतृत्व में रहते थे। ये चोर साधु-साध्वियों को बहुत कष्ट देते थे। राज्योपद्रव-जन्य साधुओं के लिये दूसरा महान् संकट था। राजा के मर जाने पर देश में जब अराजकता फैल जाती थी तो साधुओं को महान् कष्ट होता था। उस समय आसपास देश के राजा नृपविहीन राज्य पर आक्रमण कर देते थे और दोनों सेनाओं में घोर युद्ध होता था। ऐसे समय प्रायः साधु लोग गुप्तचर समझ पकड़ लिये जाते थे। कभी विधर्मी राजा होने से जैन साधुओं को बहुत कष्ट सहना पड़ता था। जब राजा इन साधुओं को विनय आदि प्रदर्शन करने का आदेश देता तो वे बड़े संकट में पड़ जाते थे। कभी तो उन्हें बौद्ध, कापालिक आदि साधुओं का वेष बनाकर भागना पड़ता था, जैसे-तैसे अन्न पर निर्वाह करना पड़ता था, तथा पलाशवन और कमल आदि के तालाब में छिपकर अपनी प्राण-रक्षा करनी पड़ती थी। वसतिजन्य साधुओं को दूसरा कष्ट था। वसति-उपाश्रय में सर्प, बिच्छु, मच्छर, चींटी, कुत्तों आदि का उपद्रव था। उस के आसपास स्त्रियां अपना भ्रूण डालकर चली जाती थीं, चोर चोरी का माल रखकर भाग जाते थे, तथा कुछ लोग वहाँ आत्मघात कर लेते थे, इस से साधुओं को बहुत सतर्क रहना पड़ता था और
“बृहत्कल्प भाष्य, पृ० ८५६-८८० ६. वही, पृ० ८४८-८५६ ७° वही, पृ० ७७८-७८७ "निशीथ चूणि, पृ० ३६७
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