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महावीर वर्धमान इस प्रकार समभाव रखता है जैसे पिता अपने पुत्रों के प्रति । वास्तव में अनेकांतवाद--मानसिक शुद्धि-ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही धर्म है; इसे प्राप्त कर लेने पर शास्त्रों के एक पद का ज्ञान प्राप्त कर लेना भी पर्याप्त है अन्यथा करोड़ों शास्त्र पढ़ जाने से भी कोई लाभ नहीं ।२ वास्तव में देखा जाय तो उपशम वृत्ति ही महावीर के श्रामण्य-धर्म की भित्ति रही है, इसी भावना को अभिव्यक्त करने के लिये उन्हों ने अहिंसा अर्थात् तप और त्याग, तथा अनेकांत अर्थात् मानसिक शुद्धि पर जोर दिया है। उन का कहना था कि सत्य आपेक्षिक है, वस्तु का पूर्णरूप से त्रिकालाबाधित दर्शन होना कठिन है, उस में देश, काल, परिस्थिति आदि का भेद होना अनिवार्य है, अतएव हमें व्यर्थ के वाद-विवादों में न पड़कर अहिंसा और त्यागमय जीवन बिताना चाहिये, यही परमार्थ है । अनेकांत हमें अभिनिवेश से, आग्रह से मुक्त करता है ; अाग्रही पुरुष की युक्ति उस की बुद्धि का अनुगमन करती है जब कि निष्पक्ष पुरुष की--अनेकांती की-बुद्धि उस की युक्ति के पीछे पीछे दौड़ती है ।६५ सच पूछा जाय तो अनेकांत का माननेवाला राग, द्वेषरूप आत्मा के विकारों पर विजय प्राप्त करने का सतत प्रयत्न करता रहता है, दूसरे के सिद्धांतों को वह आदर की दृष्टि से, जुदा जुदा पहलुओं से देखता है और विशाल भाव से विरोधों का समन्वयकर कल्याण का मार्ग खोज निकालता है। अनेकांत वस्तुतत्त्व को समझने की एक दृष्टि का नाम है, अतएव उसे अव्यवहार्य तर्कवाद का रूप देकर ज्ञान का द्वार बन्द कर देना ठीक नहीं।
६२ अध्यात्मोपनिषद् ६१,७१ ६३ प्राग्रही बत निनीषति युक्ति
तत्र, यत्र मतिरस्य निविष्टा। पक्षपातरहितस्य तु युक्तियंत्र, तत्र मतिरेति निवेशम् ॥ (हरिभद्र)
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