Book Title: Mahavir Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalay

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Page 38
________________ ईश्वर- कर्तृत्व- निषेध --- पुरुषार्थ का महत्त्व यह बताया था कि उस में अपार शक्ति है, वह अपनी तीव्र श्रद्धा और भावना · वेग से चाहे जो कर सकती है और साथ ही वह अपने असीम मातृप्रेम द्वारा पुरुष को प्रेरणा और शक्ति प्रदानकर समाज का कल्याण कर सकती है । ३७ ईश्वर - कर्तृत्व- निषेध - पुरुषार्थ का महत्त्व ८ महावीर का कथन था कि आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था का नाम ईश्वर है । जब मनुष्य राग-द्वेष से विमुक्त हो जाता है - प्रर्थात् मनुष्य ईश्वर बन सकता है - तो फिर उसे संसार की सृष्टि के प्रपंच में पड़ने से क्या लाभ ? तथा यदि ईश्वर दयालू है, सर्वज्ञ है तो फिर उस की सृष्टि में अन्याय, और उत्पीड़न क्यों होता है ? क्यों सब प्राणी सुख और शांति से नहीं रहते ? अतएव यदि ईश्वर अपनी सृष्टि को, अपनी प्रजा को सुखी नहीं रख सकता तो उस से क्या लाभ? फिर यही क्यों न माना जाय कि मनुष्य अपने अपने कर्मों का फल भोगता है, जो जैसा करता है, वैसा पाता है । ईश्वर को कर्त्ता मानने से, उसे सर्वज्ञ स्वीकार करने से हम प्रारब्धवादी बन जाते हैं और किसी वस्तु पर हम स्वतंत्रतापूर्वक विचार नहीं कर सकते । अच्छा होता है तो ईश्वर करता है, बुरा करता है तो ईश्वर करता है, आदि विचार मनुष्य को पुरुषार्थहीन बनाकर जनहित से विमुख कर देते हैं । महावीर ने घोषणा की थी कि ऐ मनुष्यो ! तुम जो चाहे कर सकते हो, जो चाहे बन सकते हो, अपने भाग्य के विधाता तुम्हीं हो, पुरुषार्थपूर्वक, बुद्धिपूर्वक, अंधश्रद्धा को त्यागकर आगे बढ़े चलो, इष्टसिद्धि अवश्य होगी । बुद्ध ने एक स्थान पर कहा है कि किसी बात में केवल इसलिये विश्वास मत करो कि उसे मैं कहता हूँ या बहुत से लोग उसे मानते चले आये हैं, इसलिये विश्वास मत करो कि वह तुम्हारे आचार्यों की कही हुई बात है या तुम्हारे धर्मग्रन्थों में लिखी हुई है, बल्कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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