Book Title: Mahavir Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalay

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Page 25
________________ २४ महावीर वर्धमान के साथ-साथ उस समय द्वेष, क्लेश, घृणा और अहंकार की कलुषित भावनायें सर्वत्र फैली हुई थीं । ऐसे समय करुणामय महावीर ने सर्व संहारकारिणी हिंसा के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाई और बताया कि अहिंसा से ही मनुष्य सुखी बन सकता है, इसी से संसार की शांति क़ायम रह सकती हैं और समाज में सुख की अभिवृद्धि हो सकती है। 'जीवो जीवस्य जीवनम्' इस शोषणात्मक सिद्धांत के विरुद्ध महावीर ने कहा कि लोकहित के लिये, समाज के कल्याण के लिये 'जीओ और जीने दो' इस कल्याणकारी सिद्धांत के स्वीकार किये बिना हमारी बर्बर वृत्तियाँ -- दूसरों का संहारकर जय पाने की भावनायें, दूसरों का अपयशकर यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की अभिलाषायें, निस्सहाय और पीड़ितों का सर्वस्व छीनकर वाहवाह लूटने की इच्छायें कभी तृप्त नहीं हो सकतीं। अपने आप को सुखी बनाने के लिये मनुष्य नाना प्रकार की प्रवृत्तियाँ करता है और इस से वह दूसरों को संताप पहुँचाता है जिस से संसार की शांति भंग होती है, अतएव महावीर का कथन था कि बुद्धिमान पुरुष अपना निज का दृष्टांत सामने रखकर अपने को प्रतिकूल लगनेवाली बातों को दूसरों के विरुद्ध आचरण नहीं करते । वास्तव में प्रमादपूर्वक -- प्रयत्नाचारपूर्वक -- कामभोगों में सक्ति का नाम ही हिंसा है, अतएव महावीर का उपदेश था कि विकारों पर विजय प्राप्त करना, इन्द्रियदमन करना और समस्त प्रवृत्तियों को संकुचित करना ही सच्ची अहिंसा है । महावीर अहिंसा - पालन में बहुत आगे बढ़ जाते हैं और जब वे समस्त प्रकृति में जीव का श्रारोपणकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति तक की रक्षा का उपदेश देते हैं तो उन की अहिंसक वृत्ति - विश्वकल्याण की भावना - चरम सीमा पर पहुँच जाती हैं । महावीर ने जिस सर्वमुखी अहिंसा का उपदेश दिया था, वह अहिंसा केवल व्यक्ति-परक न थी बल्कि जगत् के कल्याण के लिये उस का सामूहिक रूप से उपयोग हो सकता था । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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